अटल बिहारी वाजपेयी के बग़ैर बीजेपी कैसी होगी, ये तो 2014 में ही उभर गया, लेकिन नया सवाल नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली बीजेपी का है क्योंकि 2014 के जनादेश की पीठ पर सवार नरेंद्र मोदी ने बीजेपी कभी संभाली नहीं बल्कि सीधे सत्ता संभाली जिससे सत्ता के विचार बीजेपी से कम प्रभावित और सत्ता चलाने या बनाए रखने से ज़्यादा प्रभावित ही नजर आए.
इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि जनसंघ से लेकर बीजेपी के जिस मिज़ाज को राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ से लेकर श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय या बलराज मधोक से होते हुए वाजपेयी-आडवाणी-जोशी ने मथा उस तरह नरेंद्र मोदी को कभी मौक़ा ही नहीं मिला कि वह बीजेपी को मथें.
हां, नरेंद्र मोदी का मतलब सत्ता पाना हो गया और झटके में वह सवाल अतीत के गर्भ में चले गए कि संघ राजनीतिक शुद्धिकरण करता है और संघ के रास्ते राजनीति में आने वाले स्वयंसेवक अलग चाल, चरित्र और चेहरे को जीते हैं.
लेकिन वाजपेयी के निधन के दिन से लेकर हरिद्वार में अस्थि विसर्जन तक जो दृश्य बार-बार उभरा उसने बीजेपी को उस दोराहे पर ही खड़ा किया, जहां एक तरफ़ संघ की चादर में लिपटी वाजपेयी की पारंपरिक राजनीति है तो दूसरी तरफ़ मोदी की हर हाल में सत्ता पाने की राह है.
दोराहे पर खड़ी बीजेपी
मतलब ये कि वाजपेयी की विरासत तले मोदी की सियासत जिन तस्वीरों के आसरे अभी तक परवान पर थी, वह बदल जाएगी या मोदी को भी बदलने को मजबूर कर देगी, नज़रें इसी पर हर किसी की जा टिकी हैं.