लखनऊ-पीसी चौधरी_
लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन अगर परवान चढ़ा तो उत्तर प्रदेश में 25 साल बाद यह दोनों पार्टियां फिर एकजुट होकर भाजपा से मुकाबिल होंगी। ऐसी स्थिति में कम से कम उत्तर प्रदेश में लोकसभा की चुनावी लड़ाई इस बार काफी कांटे की और दिलचस्प होगी। पुराने आंकड़ें कुछ ऐसा ही कहते हैं।
यह पहला मौका होगा जब दोनों दल लोकसभा चुनाव में एक साथ होंगे। 25 साल पहले यानी 1993 में दोनों दलों का जो गठबंधन हुआ था वह विधानसभा चुनाव में था। पर, उस चुनाव और लोकसभा के लिए 2014 में दोनों पार्टियों के पक्ष में पड़े वोटों को देखें तो यह बात साफ हो रही है कि गठजोड़ कड़ी चुनौती पेश करेगा।
कितना मजबूत होगा गठबंधन
1993 के विधानसभा चुनाव में सपा ने 264 सीटों पर और बसपा ने 164 सीटों पर चुनाव लड़ा था। सपा को 109 सीटें मिलीं तो बसपा को 67। भाजपा को 177 सीटें मिलीं थी। सपा और बसपा के गठबंधन के बावजूद भाजपा को दोनों से ज्यादा सीटें मिली थीं लेकिन भाजपा को रोकने के नाम पर कुछ और दलों के समर्थन से सपा और बसपा ने मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में 4 दिसंबर 1993 को सरकार बनाई। पर, यह सरकार लंबी नहीं चल पाई।
सपा और बसपा में महत्वाकांक्षाओं की टकराहट शुरू हुई और यह टकराव 2 जून 1995 को स्टेट गेस्ट हाउस कांड तक पहुंच गया। राजधानी में मीराबाई मार्ग स्थित स्टेट गेस्ट हाउस में ठहरे मायावती और कांशीराम पर सपाइयों के हमले ने दोनों को अलग कर दिया। इसके बाद बसपा का भाजपा के साथ तीन बार गठबंधन हुआ। पर, लंबा नहीं चला।
लोकसभा चुनाव में पहली बार गठबंधन
बसपा ने प्रदेश में विधानसभा चुनाव को लेकर या प्रदेश सरकार बनाने के लिए तो गठबंधन किए लेकिन अभी तक लोकसभा चुनाव के लिए वह अकेले ही मैदान में उतरती रही है। यह बात अलग है कि 1991 में बसपा के संस्थापक कांशीराम को लोकसभा में भेजने के लिए मुलायम सिंह यादव ने मदद की थी।
उसी मदद का नतीजा था कि कांशीराम और मुलायम की नजदीकी ने 1993 में सपा और बसपा का गठबंधन कराया। पर, यह पहला मौका होगा जब बसपा लोकसभा चुनाव में गठबंधन करके उतरने की तैयारी कर रही है।
ये है चुनावी गुणाभाग
लोकसभा चुनाव 1989 में पहली बार बसपा के दो सदस्य पहुंचे थे। इसके बाद यह संख्या क्रमश: बढ़कर 2009-2014 में 21 तक पहुंच गई। 2014 में बसपा को 19.60 प्रतिशत वोट मिले लेकिन सीट एक भी नहीं मिल पाई। सपा को 22.20 प्रतिशत वोट मिले और इसे लोकसभा की सिर्फ पांच सीटों पर जीत मिली। सपा और बसपा के वोट प्रतिशत को जोड़ दिया जाए तो यह 41.80 प्रतिशत पहुंच जाता है।
भाजपा को 42.30 प्रतिशत वोट मिले थे और इसके उम्मीदवार 71 सीटों पर जीते। इसके बाद विधानसभा 2017 के चुनाव में भी सपा को 21.8 प्रतिशत और बसपा को 22.2 प्रतिशत वोट मिले। मतलब सपा का तो वोट प्रतिशत कुछ घटा लेकिन बसपा का बढ़ गया। यह मिलकर 44 प्रतिशत हो जाता है। इसके बावजूद सपा और बसपा को क्रमश: 47 व 19 सीटें ही मिलीं। भाजपा को 39.7 प्रतिशत वोट ही मिला।
मतलब लोकसभा चुनाव के मुकाबले लगभग 2.10 प्रतिशत कम। बावजूद इसके पार्टी के 312 विधायक जीते। संभवत: इसी गणित ने सपा को कांग्रेस के बजाय बसपा के साथ रिश्ते बनाने को मजबूर किया है तो बसपा को भी लग रहा है कि सपा को साथ लिए बिना आगे बढ़ पाना मुश्किल है। कोई जरूरी नहीं है कि चुनाव में मत प्रतिशत का यही आंकड़ा दोहराया जाए लेकिन फिलहाल आंकड़ों के आधार पर सपा और बसपा का गठबंधन भाजपा के साथ लोकसभा चुनाव की लड़ाई को कांटे की बनाता दिख रहा है।
लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन अगर परवान चढ़ा तो उत्तर प्रदेश में 25 साल बाद यह दोनों पार्टियां फिर एकजुट होकर भाजपा से मुकाबिल होंगी। ऐसी स्थिति में कम से कम उत्तर प्रदेश में लोकसभा की चुनावी लड़ाई इस बार काफी कांटे की और दिलचस्प होगी। पुराने आंकड़ें कुछ ऐसा ही कहते हैं।
यह पहला मौका होगा जब दोनों दल लोकसभा चुनाव में एक साथ होंगे। 25 साल पहले यानी 1993 में दोनों दलों का जो गठबंधन हुआ था वह विधानसभा चुनाव में था। पर, उस चुनाव और लोकसभा के लिए 2014 में दोनों पार्टियों के पक्ष में पड़े वोटों को देखें तो यह बात साफ हो रही है कि गठजोड़ कड़ी चुनौती पेश करेगा।
कितना मजबूत होगा गठबंधन
1993 के विधानसभा चुनाव में सपा ने 264 सीटों पर और बसपा ने 164 सीटों पर चुनाव लड़ा था। सपा को 109 सीटें मिलीं तो बसपा को 67। भाजपा को 177 सीटें मिलीं थी। सपा और बसपा के गठबंधन के बावजूद भाजपा को दोनों से ज्यादा सीटें मिली थीं लेकिन भाजपा को रोकने के नाम पर कुछ और दलों के समर्थन से सपा और बसपा ने मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में 4 दिसंबर 1993 को सरकार बनाई। पर, यह सरकार लंबी नहीं चल पाई।
सपा और बसपा में महत्वाकांक्षाओं की टकराहट शुरू हुई और यह टकराव 2 जून 1995 को स्टेट गेस्ट हाउस कांड तक पहुंच गया। राजधानी में मीराबाई मार्ग स्थित स्टेट गेस्ट हाउस में ठहरे मायावती और कांशीराम पर सपाइयों के हमले ने दोनों को अलग कर दिया। इसके बाद बसपा का भाजपा के साथ तीन बार गठबंधन हुआ। पर, लंबा नहीं चला।
लोकसभा चुनाव में पहली बार गठबंधन
बसपा ने प्रदेश में विधानसभा चुनाव को लेकर या प्रदेश सरकार बनाने के लिए तो गठबंधन किए लेकिन अभी तक लोकसभा चुनाव के लिए वह अकेले ही मैदान में उतरती रही है। यह बात अलग है कि 1991 में बसपा के संस्थापक कांशीराम को लोकसभा में भेजने के लिए मुलायम सिंह यादव ने मदद की थी।
उसी मदद का नतीजा था कि कांशीराम और मुलायम की नजदीकी ने 1993 में सपा और बसपा का गठबंधन कराया। पर, यह पहला मौका होगा जब बसपा लोकसभा चुनाव में गठबंधन करके उतरने की तैयारी कर रही है।
ये है चुनावी गुणाभाग
लोकसभा चुनाव 1989 में पहली बार बसपा के दो सदस्य पहुंचे थे। इसके बाद यह संख्या क्रमश: बढ़कर 2009-2014 में 21 तक पहुंच गई। 2014 में बसपा को 19.60 प्रतिशत वोट मिले लेकिन सीट एक भी नहीं मिल पाई। सपा को 22.20 प्रतिशत वोट मिले और इसे लोकसभा की सिर्फ पांच सीटों पर जीत मिली। सपा और बसपा के वोट प्रतिशत को जोड़ दिया जाए तो यह 41.80 प्रतिशत पहुंच जाता है।
भाजपा को 42.30 प्रतिशत वोट मिले थे और इसके उम्मीदवार 71 सीटों पर जीते। इसके बाद विधानसभा 2017 के चुनाव में भी सपा को 21.8 प्रतिशत और बसपा को 22.2 प्रतिशत वोट मिले। मतलब सपा का तो वोट प्रतिशत कुछ घटा लेकिन बसपा का बढ़ गया। यह मिलकर 44 प्रतिशत हो जाता है। इसके बावजूद सपा और बसपा को क्रमश: 47 व 19 सीटें ही मिलीं। भाजपा को 39.7 प्रतिशत वोट ही मिला।
मतलब लोकसभा चुनाव के मुकाबले लगभग 2.10 प्रतिशत कम। बावजूद इसके पार्टी के 312 विधायक जीते। संभवत: इसी गणित ने सपा को कांग्रेस के बजाय बसपा के साथ रिश्ते बनाने को मजबूर किया है तो बसपा को भी लग रहा है कि सपा को साथ लिए बिना आगे बढ़ पाना मुश्किल है। कोई जरूरी नहीं है कि चुनाव में मत प्रतिशत का यही आंकड़ा दोहराया जाए लेकिन फिलहाल आंकड़ों के आधार पर सपा और बसपा का गठबंधन भाजपा के साथ लोकसभा चुनाव की लड़ाई को कांटे की बनाता दिख रहा है।