विश्वपति वर्मा_
हाल ही में सम्पन्न हुए पांच राज्यों के चुनाव में कोई जीत का जश्न मना रहा है तो कोई हार की समीक्षा कर रहा है ।
केंद्रीय सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को 2014 में आम जनमानस ने यह मानकर वोट दिया था कि देश मे गरीबी,बेरोजगारी ,भ्रष्टाचार पर नियंत्रण होगा।
लेकिन पांच साल पूर्ण होने वाले कार्यकाल में वर्तमान सरकार ने जमीनी हकीकत को न तो समझना चाहा और न ही चुनावी वादों को गंभीरता से लिया ।
ये तो सब जानते हैं कि कमलनाथ और शिवराज एक साथ बैठ कर चाय पी लेंगे लेकिन उनके कार्यकर्ता जो विधायक और सांसद चुनते हैं ,जो खुल कर किसी एक पक्ष के लिए राजनीतिक झंडा उठाते हैं वें कहीं के न रहे हैं।
लेकिन सत्ताधारी को इस बात की गंभीरता लेनी चाहिए कि जब वह संवैधानिक पद पर बैठता है तो राज्य व देश की जनता के लिए शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार की उपलब्धता सुनिश्चित करे।
हमे नही लगता कि केंद्र की मोदी सरकार ने देश की जनता के लिए कोई ऐसा कार्य किया हो जिससे वें गर्व से कह सकें कि सरकार और सरकार में फर्क होता है !क्या फर्क पड़ता है कांग्रेस के भ्रष्टाचार के दलदल वाली सरकार से और क्या फर्क दिखाई दिया निराधार मुद्दे पर पांच साल बिता देने वाली सरकार में।
पांच साल बीतने को हैं देश मे नई शिक्षा नीति का कोई पता लता नही है ,देश के परिषदीय विद्यालयों में ही नही समस्त सरकारी स्कूलों की यह स्थिति है कि न तो अध्यापक की संख्या पूरी है और न ही किसी प्रकार की कोई ठोस शैक्षणिक व्यवस्था है।
इसी प्रकार सरकार की समस्त संस्थाओं की स्थिति है जंहा पर सरकारी धन के बंदरबांट के लिए योजनाओं को तैयार करने की बारीकियों पर चर्चा होती है। देश भर के 46 फीसदी महिलाओं में खून की कमी और 22 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं ,लेकिन सरकारी महकमों में आज तक यह नही तय हो पाया कि पुष्टाहार और समाज कल्याण के पैंसे को कहां खर्च करना है।
पंचायती राज और ग्राम विकास के रास्ते भारत के गांवों और वँहा के निवासियों को समग्र एवं समेकित विकास के श्रेणी में लाने के लिए अकूत पैंसे खर्च किये जाते हैं लेकिन 2018 में केंद्र सरकार द्वारा पंचायती राज को दिए 80,000,000,000 रुपया (80 अरब) कहाँ गया यह इसकी तस्वीर कुछ साफ नही है
इतना पैंसा मिलने के बाद भी यदि गांवों की बदहाल स्थिति में सुधार न आये तो यह स्पष्ट है कि जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा सही तरीके से खर्च नही किया गया आपको बता दें कि इन पैंसों से केवल ग्राम पंचायत के माध्यम से खर्च किया गया है लेकिन पैसों के आंकड़ों का ये पक्ष जितना चमकदार है, इसकी दूसरी तस्वीर कई सवाल खड़े करती है।
देश मे किसानों की स्थिति हाशिये पर है अपने फसलों को लागत मूल्य से कम दाम पर बेंचने के लिए मजबूर हैं लेकिन उन्हें क्या फर्क पड़ता है अगर सब कुछ ठीकठाक हो गया तो अगले चुनाव में मुद्दा ही क्या बचेगा ,फिर हार की समीक्षा और जीत के जश्न का तो कोई मतलब ही नही रहेगा क्योंकि जब देश विकसित हो जाएगा तो सरकार काहें के लिए खजाने से एक ही काम के लिए बार बार पैंसा भेजेगी।
आखिर मतदाताओं को ही यह तय करना होगा कि सरकार जनता के किस योजनाओं के लिए पैंसा खर्च करे, प्राथमिकताओं को तय करते हुए काम करने की जरूरत को लाने की आवश्यकता है या फिर राजनेताओं के सुखमय जीवन के लिए बड़े बड़े कार्यालय को खोलने की जरूरत है।
अब देश की जनता तय करे कि वह हार -जीत का हिस्सा बनेगी या फिर अपने आने वाली पीढ़ी के लिए सरकार से शिक्षा ,चिकित्सा, रोजगार ,भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बदलाव की अपेक्षा करेगी।
हाल ही में सम्पन्न हुए पांच राज्यों के चुनाव में कोई जीत का जश्न मना रहा है तो कोई हार की समीक्षा कर रहा है ।
केंद्रीय सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को 2014 में आम जनमानस ने यह मानकर वोट दिया था कि देश मे गरीबी,बेरोजगारी ,भ्रष्टाचार पर नियंत्रण होगा।
लेकिन पांच साल पूर्ण होने वाले कार्यकाल में वर्तमान सरकार ने जमीनी हकीकत को न तो समझना चाहा और न ही चुनावी वादों को गंभीरता से लिया ।
ये तो सब जानते हैं कि कमलनाथ और शिवराज एक साथ बैठ कर चाय पी लेंगे लेकिन उनके कार्यकर्ता जो विधायक और सांसद चुनते हैं ,जो खुल कर किसी एक पक्ष के लिए राजनीतिक झंडा उठाते हैं वें कहीं के न रहे हैं।
लेकिन सत्ताधारी को इस बात की गंभीरता लेनी चाहिए कि जब वह संवैधानिक पद पर बैठता है तो राज्य व देश की जनता के लिए शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार की उपलब्धता सुनिश्चित करे।
हमे नही लगता कि केंद्र की मोदी सरकार ने देश की जनता के लिए कोई ऐसा कार्य किया हो जिससे वें गर्व से कह सकें कि सरकार और सरकार में फर्क होता है !क्या फर्क पड़ता है कांग्रेस के भ्रष्टाचार के दलदल वाली सरकार से और क्या फर्क दिखाई दिया निराधार मुद्दे पर पांच साल बिता देने वाली सरकार में।
पांच साल बीतने को हैं देश मे नई शिक्षा नीति का कोई पता लता नही है ,देश के परिषदीय विद्यालयों में ही नही समस्त सरकारी स्कूलों की यह स्थिति है कि न तो अध्यापक की संख्या पूरी है और न ही किसी प्रकार की कोई ठोस शैक्षणिक व्यवस्था है।
इसी प्रकार सरकार की समस्त संस्थाओं की स्थिति है जंहा पर सरकारी धन के बंदरबांट के लिए योजनाओं को तैयार करने की बारीकियों पर चर्चा होती है। देश भर के 46 फीसदी महिलाओं में खून की कमी और 22 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं ,लेकिन सरकारी महकमों में आज तक यह नही तय हो पाया कि पुष्टाहार और समाज कल्याण के पैंसे को कहां खर्च करना है।
पंचायती राज और ग्राम विकास के रास्ते भारत के गांवों और वँहा के निवासियों को समग्र एवं समेकित विकास के श्रेणी में लाने के लिए अकूत पैंसे खर्च किये जाते हैं लेकिन 2018 में केंद्र सरकार द्वारा पंचायती राज को दिए 80,000,000,000 रुपया (80 अरब) कहाँ गया यह इसकी तस्वीर कुछ साफ नही है
इतना पैंसा मिलने के बाद भी यदि गांवों की बदहाल स्थिति में सुधार न आये तो यह स्पष्ट है कि जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा सही तरीके से खर्च नही किया गया आपको बता दें कि इन पैंसों से केवल ग्राम पंचायत के माध्यम से खर्च किया गया है लेकिन पैसों के आंकड़ों का ये पक्ष जितना चमकदार है, इसकी दूसरी तस्वीर कई सवाल खड़े करती है।
देश मे किसानों की स्थिति हाशिये पर है अपने फसलों को लागत मूल्य से कम दाम पर बेंचने के लिए मजबूर हैं लेकिन उन्हें क्या फर्क पड़ता है अगर सब कुछ ठीकठाक हो गया तो अगले चुनाव में मुद्दा ही क्या बचेगा ,फिर हार की समीक्षा और जीत के जश्न का तो कोई मतलब ही नही रहेगा क्योंकि जब देश विकसित हो जाएगा तो सरकार काहें के लिए खजाने से एक ही काम के लिए बार बार पैंसा भेजेगी।
आखिर मतदाताओं को ही यह तय करना होगा कि सरकार जनता के किस योजनाओं के लिए पैंसा खर्च करे, प्राथमिकताओं को तय करते हुए काम करने की जरूरत को लाने की आवश्यकता है या फिर राजनेताओं के सुखमय जीवन के लिए बड़े बड़े कार्यालय को खोलने की जरूरत है।
अब देश की जनता तय करे कि वह हार -जीत का हिस्सा बनेगी या फिर अपने आने वाली पीढ़ी के लिए सरकार से शिक्षा ,चिकित्सा, रोजगार ,भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बदलाव की अपेक्षा करेगी।