विश्वपति वर्मा_
पांच राज्यों में हो रहे चुनाव के दौरान स्थानीय मुद्दे पर राजनीतिक दलों द्वारा कोई चर्चा नही की गई स्थानीय या राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों द्वारा शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार के अवसर पैदा करने के मुद्दे पर कोई बड़ी बहँस नही की गई ।देखने को मिला है कि विधानसभा के चुनावी माहौल में प्रमुख राजनीतिक दलों ने 2019 के लिए जय- विजय के लिए रास्ता बनाने के अलावां जनहित के किसी मुद्दे पर आवाज उठाने का काम नही किया अब इसका खमियाजा राज्यों की जनता को ही भुगतना पड़ेगा।
हाल तक असेंबली इलेक्शंस में ‘राष्ट्रीय’ बक-झक कम ही सुनाई देती थी। शिक्षा, स्वास्थ्य और ज्यादातर स्थानीय मसले राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं, लिहाजा चुनाव इन्हीं मुद्दों पर लड़े जाते थे और इसका कुछ फायदा भी लोगों को मिलता था। लेकिन इधर कुछ सालों से विधानसभा चुनावों को भी आम चुनावों की तरह लड़ा जाने लगा है।
प्रधानमंत्री से लेकर पूरे केंद्रीय मंत्रिमंडल और बीजेपी के सभी मुख्यमंत्रियों की सक्रियता इनमें खुलकर नजर आती है और इसी के मुताबिक चुनाव के खर्चे भी बढ़ते हैं। दरअसल बीजेपी की मौजूदा राजनीति में जीत सबसे जरूरी फैक्टर है। पार्टी अपनी हर चुनावी जीत को अपनी नीतियों पर जनता की मुहर के रूप में प्रचारित करती है और उसी के दम पर सत्ता में अपनी निरंतरता बनाए रखना चाहती है। इसलिए इस बार भी पांच राज्यों के चुनाव ‘मोदी बनाम राहुल’ के मुहावरे पर लड़े जा रहे हैं। और तो और, अयोध्या में राममंदिर बने या नहीं, इसे भी एक जरूरी मुद्दा बना दिया गया है।
इसकी काट में कांग्रेस भी स्थानीय मुद्दों से परहेज कर रही है। राहुल गांधी व्यापम से ज्यादा नोटबंदी, राफेल और जीएसटी पर बोल रहे हैं। सोमवार को मध्य प्रदेश में चुनाव प्रचार समाप्त हो गया मगर किसानों की बदहाली और दलितों पर अक्सर होने वाले हमले वहां कोई बड़ा मुद्दा नहीं बन पाए।
इससे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए चुनाव लड़ना आसान हो गया। वे सीधे राहुल गांधी पर हमले करके भीड़ से तालियां पिटवाते रहे। चुनाव प्रचार के दौरान सभी दलों के नेताओं की जुबान फिसली। खुद प्रधानमंत्री ने राहुल गांधी की नानी को अपने एक भाषण का विषय बनाया, जबकि कुछ कांग्रेसी नेता अपनी सभाओं में प्रधानमंत्री के मां-बाप का जिक्र करके उनके भावनात्मक जवाबी हमलों के शिकार हुए। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू को ‘विक्षिप्त’ कह दिया। ऐसे निजी मामले खूब खींचे जा रहे हैं क्योंकि किसी के पास कहने को कुछ है नहीं। कांग्रेस की एक कोशिश अपनी सॉफ्ट हिंदुत्व वाली छवि बनाने की भी है। पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी मंदिर-मंदिर जाकर खुद को कभी ‘शिवभक्त’ तो कभी ‘रामभक्त’ दिखाने में जुटे हैं। राजस्थान में जाति और हिंदुत्व पर बहस दिख रही है लेकिन महंगाई, रिफाइनरी और मेट्रो जैसी महत्वपूर्ण योजनाओं पर कोई बात नहीं हो रही। दागी-बागी नेताओं ने हर जगह आलाकमान को परेशान कर रखा है। ऐेसे में मतदाताओं के सामने भारी असमंजस की स्थिति है। उनके सवालों पर कोई बात ही नहीं कर रहा तो वे किसी के साथ दिखने का जोखिम क्यों उठाएं?
पांच राज्यों में हो रहे चुनाव के दौरान स्थानीय मुद्दे पर राजनीतिक दलों द्वारा कोई चर्चा नही की गई स्थानीय या राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों द्वारा शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार के अवसर पैदा करने के मुद्दे पर कोई बड़ी बहँस नही की गई ।देखने को मिला है कि विधानसभा के चुनावी माहौल में प्रमुख राजनीतिक दलों ने 2019 के लिए जय- विजय के लिए रास्ता बनाने के अलावां जनहित के किसी मुद्दे पर आवाज उठाने का काम नही किया अब इसका खमियाजा राज्यों की जनता को ही भुगतना पड़ेगा।
हाल तक असेंबली इलेक्शंस में ‘राष्ट्रीय’ बक-झक कम ही सुनाई देती थी। शिक्षा, स्वास्थ्य और ज्यादातर स्थानीय मसले राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं, लिहाजा चुनाव इन्हीं मुद्दों पर लड़े जाते थे और इसका कुछ फायदा भी लोगों को मिलता था। लेकिन इधर कुछ सालों से विधानसभा चुनावों को भी आम चुनावों की तरह लड़ा जाने लगा है।
प्रधानमंत्री से लेकर पूरे केंद्रीय मंत्रिमंडल और बीजेपी के सभी मुख्यमंत्रियों की सक्रियता इनमें खुलकर नजर आती है और इसी के मुताबिक चुनाव के खर्चे भी बढ़ते हैं। दरअसल बीजेपी की मौजूदा राजनीति में जीत सबसे जरूरी फैक्टर है। पार्टी अपनी हर चुनावी जीत को अपनी नीतियों पर जनता की मुहर के रूप में प्रचारित करती है और उसी के दम पर सत्ता में अपनी निरंतरता बनाए रखना चाहती है। इसलिए इस बार भी पांच राज्यों के चुनाव ‘मोदी बनाम राहुल’ के मुहावरे पर लड़े जा रहे हैं। और तो और, अयोध्या में राममंदिर बने या नहीं, इसे भी एक जरूरी मुद्दा बना दिया गया है।
इसकी काट में कांग्रेस भी स्थानीय मुद्दों से परहेज कर रही है। राहुल गांधी व्यापम से ज्यादा नोटबंदी, राफेल और जीएसटी पर बोल रहे हैं। सोमवार को मध्य प्रदेश में चुनाव प्रचार समाप्त हो गया मगर किसानों की बदहाली और दलितों पर अक्सर होने वाले हमले वहां कोई बड़ा मुद्दा नहीं बन पाए।
इससे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए चुनाव लड़ना आसान हो गया। वे सीधे राहुल गांधी पर हमले करके भीड़ से तालियां पिटवाते रहे। चुनाव प्रचार के दौरान सभी दलों के नेताओं की जुबान फिसली। खुद प्रधानमंत्री ने राहुल गांधी की नानी को अपने एक भाषण का विषय बनाया, जबकि कुछ कांग्रेसी नेता अपनी सभाओं में प्रधानमंत्री के मां-बाप का जिक्र करके उनके भावनात्मक जवाबी हमलों के शिकार हुए। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू को ‘विक्षिप्त’ कह दिया। ऐसे निजी मामले खूब खींचे जा रहे हैं क्योंकि किसी के पास कहने को कुछ है नहीं। कांग्रेस की एक कोशिश अपनी सॉफ्ट हिंदुत्व वाली छवि बनाने की भी है। पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी मंदिर-मंदिर जाकर खुद को कभी ‘शिवभक्त’ तो कभी ‘रामभक्त’ दिखाने में जुटे हैं। राजस्थान में जाति और हिंदुत्व पर बहस दिख रही है लेकिन महंगाई, रिफाइनरी और मेट्रो जैसी महत्वपूर्ण योजनाओं पर कोई बात नहीं हो रही। दागी-बागी नेताओं ने हर जगह आलाकमान को परेशान कर रखा है। ऐेसे में मतदाताओं के सामने भारी असमंजस की स्थिति है। उनके सवालों पर कोई बात ही नहीं कर रहा तो वे किसी के साथ दिखने का जोखिम क्यों उठाएं?