विश्वपति वर्मा_
करियों और उच्च शिक्षा में सामान्य वर्ग के कम धनवान बैकग्राउंड वाले लोगों के लिए आरक्षण का रास्ता साफ हो गया है। संविधान के 124वें संशोधन के द्वारा यह व्यवस्था की गई है।
देश के दबे कुचले लोगों को समाज की मूलधारा में लाने के लिए सरकार द्वारा अनेकों योजनाओं को संचालित किया जा रहा है ।वंही नौकरी इत्यादि में अवसर दिलाने के लिए आरक्षण की व्यवस्था भी लागू है।
इधर संसद के दोनों सदनों में संविधान के 124वें संशोधन के पास होने से सामान्य वर्ग के लोगों को 10 फीसदी आरक्षण का रास्ता साफ हो गया है।
लेकिन देखा जाए तो यह गरीब परिवार नही बल्कि धनवान पृष्ठभूमि वाले युवाओं के लिए नौकरियों और उच्च शिक्षा में आने का रास्ता बनाया गया है जैसे कि एससी और पिछड़ी जातियों में इसका फायदा रसूखदार लोग लेते रहे हैं।
संविधान में रिजर्वेशन के आधार के रूप में सामाजिक पिछड़ेपन की चर्चा है, पर आर्थिक पिछड़ेपन का जिक्र भी नहीं है। यह ठीक है कि अपने फैसले को अमल में लाने के लिए सरकार ने संविधान में संशोधन किया, पर ऐसा कोई भी संशोधन तभी मान्य होगा जब वह संविधान के बुनियादी चरित्र में कोई तब्दीली न करता हो। यह न्यायपालिका तय करेगी कि आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान के मूल चरित्र का उल्लंघन है या नहीं?
दूसरी उलझन यह है कि इस कदम से आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित दायरा टूटेगा। कोर्ट ने व्यवस्था दे रखी है कि आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकता। कई राज्यों ने इस व्यवस्था को बाइपास करने के तरीके खोज लिए हैं, लेकिन सरकार के इस फैसले से आरक्षण की सीमा पूरे देश में न्यूनतम 59.5 फीसदी हो जाएगी। ऐसे में आशंका बनती है कि सामान्य वर्ग को रिजर्वेशन देने का यह कानून कहीं सुप्रीम कोर्ट द्वारा निरस्त न कर दिया जाए। अब तक के अनुभव बताते हैं कि कोर्ट ने तय मानदंडों से हटकर आरक्षण देने के प्रयासों को स्वीकार नहीं किया है।
25 सितंबर, 1991 को तत्कालीन नरसिंह राव सरकार ने सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण दिया था, मगर सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की बेंच ने ‘इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार’ केस के फैसले में इसको यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि आरक्षण का आधार आय व संपत्ति को नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा कि संविधान के अनुच्छेद 16(4) में आरक्षण समूह को है, व्यक्ति को नहीं। इसी तरह वर्ष 2015 में राजस्थान सरकार और 2016 में गुजरात सरकार द्वारा आर्थिक आधार पर दिए गए आरक्षण को कोर्ट ने खारिज कर दिया था। मान लीजिए, मोदी सरकार के फैसले को कोर्ट ने स्वीकृति दे भी दी तो इसे अमल में लाने से कई जटिलताएं पैदा होंगी। गरीबी का दायरा इसमें इतना व्यापक रखा गया है कि डर है, कहीं किसी परीक्षा में आरक्षित कोटे का कट ऑफ सामान्य वर्ग से ज्यादा न हो जाए। विडंबना यह है कि एक तरफ देश में सरकारी नौकरियां दिनोंदिन कम हो रही हैं, दूसरी तरफ सरकार युवाओं को रिजर्वेशन देकर अपनी पीठ थपथपा रही है। ऐसे में यह सिर्फ एक मनोवैज्ञानिक उपाय लगता है, जिसका कोई ठोस लाभ किसी को नहीं मिलने वाला। सचाई यही है कि आरक्षण की गाय जितनी दुही जा सकती थी, उतनी दुही जा चुकी है। सरकार युवाओं के लिए कुछ करना चाहती है तो रोजगार बढ़ाने वाली नीतियां अपनाए और ढेरों प्रफेशनल कॉलेज खोले, जहां सबको अपनी क्षमता निखारने का मौका मिले।
करियों और उच्च शिक्षा में सामान्य वर्ग के कम धनवान बैकग्राउंड वाले लोगों के लिए आरक्षण का रास्ता साफ हो गया है। संविधान के 124वें संशोधन के द्वारा यह व्यवस्था की गई है।
देश के दबे कुचले लोगों को समाज की मूलधारा में लाने के लिए सरकार द्वारा अनेकों योजनाओं को संचालित किया जा रहा है ।वंही नौकरी इत्यादि में अवसर दिलाने के लिए आरक्षण की व्यवस्था भी लागू है।
इधर संसद के दोनों सदनों में संविधान के 124वें संशोधन के पास होने से सामान्य वर्ग के लोगों को 10 फीसदी आरक्षण का रास्ता साफ हो गया है।
लेकिन देखा जाए तो यह गरीब परिवार नही बल्कि धनवान पृष्ठभूमि वाले युवाओं के लिए नौकरियों और उच्च शिक्षा में आने का रास्ता बनाया गया है जैसे कि एससी और पिछड़ी जातियों में इसका फायदा रसूखदार लोग लेते रहे हैं।
संविधान में रिजर्वेशन के आधार के रूप में सामाजिक पिछड़ेपन की चर्चा है, पर आर्थिक पिछड़ेपन का जिक्र भी नहीं है। यह ठीक है कि अपने फैसले को अमल में लाने के लिए सरकार ने संविधान में संशोधन किया, पर ऐसा कोई भी संशोधन तभी मान्य होगा जब वह संविधान के बुनियादी चरित्र में कोई तब्दीली न करता हो। यह न्यायपालिका तय करेगी कि आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान के मूल चरित्र का उल्लंघन है या नहीं?
दूसरी उलझन यह है कि इस कदम से आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित दायरा टूटेगा। कोर्ट ने व्यवस्था दे रखी है कि आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकता। कई राज्यों ने इस व्यवस्था को बाइपास करने के तरीके खोज लिए हैं, लेकिन सरकार के इस फैसले से आरक्षण की सीमा पूरे देश में न्यूनतम 59.5 फीसदी हो जाएगी। ऐसे में आशंका बनती है कि सामान्य वर्ग को रिजर्वेशन देने का यह कानून कहीं सुप्रीम कोर्ट द्वारा निरस्त न कर दिया जाए। अब तक के अनुभव बताते हैं कि कोर्ट ने तय मानदंडों से हटकर आरक्षण देने के प्रयासों को स्वीकार नहीं किया है।
25 सितंबर, 1991 को तत्कालीन नरसिंह राव सरकार ने सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण दिया था, मगर सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की बेंच ने ‘इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार’ केस के फैसले में इसको यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि आरक्षण का आधार आय व संपत्ति को नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा कि संविधान के अनुच्छेद 16(4) में आरक्षण समूह को है, व्यक्ति को नहीं। इसी तरह वर्ष 2015 में राजस्थान सरकार और 2016 में गुजरात सरकार द्वारा आर्थिक आधार पर दिए गए आरक्षण को कोर्ट ने खारिज कर दिया था। मान लीजिए, मोदी सरकार के फैसले को कोर्ट ने स्वीकृति दे भी दी तो इसे अमल में लाने से कई जटिलताएं पैदा होंगी। गरीबी का दायरा इसमें इतना व्यापक रखा गया है कि डर है, कहीं किसी परीक्षा में आरक्षित कोटे का कट ऑफ सामान्य वर्ग से ज्यादा न हो जाए। विडंबना यह है कि एक तरफ देश में सरकारी नौकरियां दिनोंदिन कम हो रही हैं, दूसरी तरफ सरकार युवाओं को रिजर्वेशन देकर अपनी पीठ थपथपा रही है। ऐसे में यह सिर्फ एक मनोवैज्ञानिक उपाय लगता है, जिसका कोई ठोस लाभ किसी को नहीं मिलने वाला। सचाई यही है कि आरक्षण की गाय जितनी दुही जा सकती थी, उतनी दुही जा चुकी है। सरकार युवाओं के लिए कुछ करना चाहती है तो रोजगार बढ़ाने वाली नीतियां अपनाए और ढेरों प्रफेशनल कॉलेज खोले, जहां सबको अपनी क्षमता निखारने का मौका मिले।