विश्वपति वर्मा_
देश मे गरीबी के आंकड़े किसी त्रासदी से कम नही है ,आजाद भारत मे भी देश की बहुसंख्यक आबादी गरीबी के बोझों तले दबी हुई है और वह भी ऐसे वक्त में जब भारत सरकार द्वारा गरीबी उन्नमूलन के लिए अनेकोंनेक योजना को चलाई गई है ।लेकिन देश मे लगभग 20 करोड़ की आबादी आज भी भूखे पेट सोने को मजबूर है।
अब इधर आम चुनाव आने वाला है इसको देखते हुए राजनीतिक पार्टियां वोटरों को साधने के लिए अपने अपने हथकंडों को अपना रही हैं ,चुनावी माहौल को देखते हुए नेता लोग भी अपने अपने एजेंडों को इशारों में बता भी रहे हैं ।जंहा राहुल गांधी गरीबों को एक निश्चित आय सुनिश्चित करने की बात मंच से कर रहे हैं वंही सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी किसानों के खाते में सीधा एक छोटी धनराशि भेजने के लिए बजट भी बना चुकी है।
गरीबी की समस्या भारत में एक बड़ी आबादी के सामने आज भी बनी हुई है लिहाजा गरीब समर्थक योजनाओं की जरूरत तो रहेगी। उनके हाथ सीधे कुछ पैसे आते हैं तो इससे उन्हें कुछ राहत जरूर मिलेगी। लेकिन इससे उनका जीवन नहीं बदलने वाला और गरीबी हरगिज नहीं मिटने वाली। अरबपतियों की सबसे तेज बढ़ती संख्या वाले देश भारत में भुखमरी की समस्या का मौजूद होना यहां की नीतिगत प्राथमिकताओं पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगाता है। अब तक की सभी सरकारें गरीबों को किसी तरह जिंदा रखने की नीति पर ही काम करती रही हैं। उनकी हालत में आमूल बदलाव करना और उन्हें विकास प्रक्रिया का हिस्सा बनाना सरकारी चिंता से बाहर रहा है।
नब्बे के दशक से शुरू हुई नई अर्थनीति ने अर्थव्यवस्था को गति दी है और देश में खुशहाली का स्तर ऊंचा किया है, लेकिन इसके साथ जुड़ा आर्थिक असमानता का रोग दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। इस अर्थनीति के तहत अमीरी और गरीबी का फासला इतना बढ़ गया है, जिसकी कुछ समय पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। ऑक्सफैम की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2017 में भारत में जितनी संपत्ति पैदा हुई, उसका 73 प्रतिशत हिस्सा देश के 1 फीसदी धनाढ्य लोगों के हाथों में चला गया, जबकि नीचे के 67 करोड़ भारतीयों को इस संपत्ति के सिर्फ एक फीसदी हिस्से पर संतोष करना पड़ा है। इस आर्थिक मॉडल को नकारने की उम्मीद राजनेताओं की मौजूदा पीढ़ी से नहीं की जा सकती, लेकिन अगर वे दर्द की दवा के नाम पर बेहोशी का इंजेक्शन दे रहे हैं तो उन्हें टोका जरूर जाना चाहिए।
देश मे गरीबी के आंकड़े किसी त्रासदी से कम नही है ,आजाद भारत मे भी देश की बहुसंख्यक आबादी गरीबी के बोझों तले दबी हुई है और वह भी ऐसे वक्त में जब भारत सरकार द्वारा गरीबी उन्नमूलन के लिए अनेकोंनेक योजना को चलाई गई है ।लेकिन देश मे लगभग 20 करोड़ की आबादी आज भी भूखे पेट सोने को मजबूर है।
अब इधर आम चुनाव आने वाला है इसको देखते हुए राजनीतिक पार्टियां वोटरों को साधने के लिए अपने अपने हथकंडों को अपना रही हैं ,चुनावी माहौल को देखते हुए नेता लोग भी अपने अपने एजेंडों को इशारों में बता भी रहे हैं ।जंहा राहुल गांधी गरीबों को एक निश्चित आय सुनिश्चित करने की बात मंच से कर रहे हैं वंही सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी किसानों के खाते में सीधा एक छोटी धनराशि भेजने के लिए बजट भी बना चुकी है।
गरीबी की समस्या भारत में एक बड़ी आबादी के सामने आज भी बनी हुई है लिहाजा गरीब समर्थक योजनाओं की जरूरत तो रहेगी। उनके हाथ सीधे कुछ पैसे आते हैं तो इससे उन्हें कुछ राहत जरूर मिलेगी। लेकिन इससे उनका जीवन नहीं बदलने वाला और गरीबी हरगिज नहीं मिटने वाली। अरबपतियों की सबसे तेज बढ़ती संख्या वाले देश भारत में भुखमरी की समस्या का मौजूद होना यहां की नीतिगत प्राथमिकताओं पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगाता है। अब तक की सभी सरकारें गरीबों को किसी तरह जिंदा रखने की नीति पर ही काम करती रही हैं। उनकी हालत में आमूल बदलाव करना और उन्हें विकास प्रक्रिया का हिस्सा बनाना सरकारी चिंता से बाहर रहा है।
नब्बे के दशक से शुरू हुई नई अर्थनीति ने अर्थव्यवस्था को गति दी है और देश में खुशहाली का स्तर ऊंचा किया है, लेकिन इसके साथ जुड़ा आर्थिक असमानता का रोग दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। इस अर्थनीति के तहत अमीरी और गरीबी का फासला इतना बढ़ गया है, जिसकी कुछ समय पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। ऑक्सफैम की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2017 में भारत में जितनी संपत्ति पैदा हुई, उसका 73 प्रतिशत हिस्सा देश के 1 फीसदी धनाढ्य लोगों के हाथों में चला गया, जबकि नीचे के 67 करोड़ भारतीयों को इस संपत्ति के सिर्फ एक फीसदी हिस्से पर संतोष करना पड़ा है। इस आर्थिक मॉडल को नकारने की उम्मीद राजनेताओं की मौजूदा पीढ़ी से नहीं की जा सकती, लेकिन अगर वे दर्द की दवा के नाम पर बेहोशी का इंजेक्शन दे रहे हैं तो उन्हें टोका जरूर जाना चाहिए।