हेमेन्द्र क्षीरसागर, पत्रकार, लेखक व विचारक―
देश में लोकसभा चुनाव आते देख सियासतदारों के मुंह में लड्डू फूटने लगे कि मैं भी अब प्रधानमंत्री बन सकता हूँ। बेला में चलो, चले प्रधानमंत्री बने की होड़ लगी हुई है। ताबड़तोड़ मेरा वोट-तेरा वोट मिलाकर करेंगे चोट की सोच से चुनाव फतह करने की तैयारी दम मार रही है। फुसफुसाहट बेमर्जी गठबंधन, मतलबी दिखावा और दुश्मन का दुश्मन दोस्त बनाने का चलन जोरों पर है। मतलब आइने की तरह बिल्कुल साफ है प्रधानमंत्री की कुर्सी जिसे पाने की जुगत में महागठबंधन नामक समूह का हर छोटा-बड़ा दल काफी मशकत कर रहा है। बस इस फिराक में की कब नरेन्द्र मोदी हटे और हम वहां डटे।
खुशफहमी बिना नेता, नीति और नियत के राजनीतिक लिप्सा शांत होने के बजाए बढ़ते क्रम में है। मुगालते में कि बिन दुल्हे की बारात ज्यादा देर नहीं चलती। बावजूद शोर-शराबा मचाने कोई आनाकानी नहीं हो रही है। जिधर देखो उधर अपनी जमीन बचाने वाला दल या नेता बाहें तानकर मोदी को निपटाने की बात कह रहा है। जैसे मोदी-मोदी चिलाने मात्र से देश का भला और सरकार बन जाएगी। पर सावन के अंधों को समझाऐ कौन इन्हें तो हर जगह हरा ही हरा दिखाई दे रहा है। कदमताल विचारधारा के परे भानुमति का कुनबा फिर तैयार हो रहा है। इस उम्मीदी में कि परिवार बचाओं, गढ़जोड़ बनाओं, वोट कबाड़ों, मोदी हराओं, सत्ता पाओं आंख दिखाओं, और मजे उड़ाओं मामला खत्म।
ये हरगिज भी नागवारा नहीं लगता क्योंकि कभी कांग्रेस के खिलाफ लड़ने वाले दल आज भाजपा के खिलाफ लामबंद होकर साथ खड़े है। किसलिए सिर्फ औऱ सिर्फ मोदी व भाजपा विरोध के रास्ते सत्तासुख के वास्ते। इनका सिद्धांत तो रहा नहीं बताऐ किसे बचा-कुचा वजूद ही बचाले मुक्मल होगा। इसके बिना राजनैतिक दुकानदारी बंद समझो इस डर से टुकुर-टुकुर नजरे मिलाई जाने लगी है। चाहत में आनन-फानन मोदी फोबियां का इलाज ढूंडा जा रहा है ताकि आगे का राजनीति सफर अमन चैन से बिते है। उधेड़बून एकाएक सियासती चालबाजी शुरू हो गई, वोटों की गोलबंदी और मुफीद शार्गिद हुंकार भरने लगे। नतीजतन कूटरचित सत्ता विरोध अभियान के पुरोधा प्रधानमंत्री बनने का स्वप्न दिन में ही देख रहे है।
चलो अच्छा है, कमशकम कोई ना सही नरेन्द्र मोदी ने तो इन टूटे हुए दिलों को मिलाकर तसली दिला दी। बानगी में पश्चिम बंगाल, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, दिल्ली और झारखंड़ समेत अन्य राज्यों में दिलजलों की दिल्लगी हो चली है। छिनाझपटी प्रधानम़ंत्री बनने वालों की नुराकुश्ति के क्यां कहने नुक्ताचिनी के बावजूद मिलन समारोह जोरों पर है। हमजोली आत्ममंथन के रसवादन से क्या निकलता है ये तो आने वाला वक्त बताएगा लेकिन पदलोलुपत्ता के चक्कर में रसपानी ललायित जोर अजमाईस करने में मशगूल है। कसर के असर में सामाजिक, क्षेत्रिय और सम सामयिक के नाम पर वोटबंदी का प्रभुत्व चलो, चले प्रधानमंत्री बने चलित अभियान का वाहक बनकर उभरा है। यह फिलवक्त ऊफान पर है जो थमने के बजाए बढ़ता ही जा रहा है और चुनाव तक सारी हदें पार कर देगी।
बतौर बेहतर परिणामों की उम्मीद बेईमानी के अलावे और कुछ नहीं क्योंकि ऐसी मौकापरस्ती के सब आदी है। अभी झंड़ा बुलंद होगा बाद में नफा-नुकसान के कायदे में चरण वंदन होगा। फिर नौटकी की क्या जरूरत है। देश को गुमराह और मतदाताओं को दिग्भ्रमित करने या अपने ईशारे पर नाचने वाली सरकार बनाने के लिए, तासिर तो येही लगती है। तभी अच्छे-बुरे की चिंता किये बिना देशहित को दरकिनार कर मतलब की राजनीति और सियासती दांवपेंच धडल्ले से खेला जा रहा है। अतएव दुर्भाग्य कहें या विड़ंबना इक्सवीं सदी में भी मूल्क की राजनीति तुतु-मैंमैं, बनने-बनाने-बिगड़ाने तथा काज नहीं अपितु राज करने के इर्दगिर्द घूम रही है जो जग हंसाई का कारक है। इतर मुठ्ठी भर कुकरमुते दलों के राजपाठी रवैया पर अंकुश लगाकर चौपट होते लोकतंत्र और प्रधानमंत्री जैसे गौरवामयी पद को बचाया जा सकता है।