विश्वपति वर्मा―
सरकार देश की जनता को उल्लू बना रही है और उल्लू लोग हैं कि वें आसानी से अपने आने वाली पीढ़ी को भी उल्लू बनवा रहे हैं अगर सब कुछ ऐसा ही रह तो आने वाली पीढ़ी भी देश की बहुसंख्यक आबादी को उल्लू ही कहेगी इसमे मैं किसी उल्लू नही बना रहा हूँ ,क्योंकि खबर की हेडलाइन के अनुसार जिस देश मे लोग शिक्षा के प्रति गंभीर नही हैं वें साल के 365 दिन किसी न किसी तरहं से उल्लू बनते रहते हैं।
पढ़ें रिपोर्ट-
हम देश को नॉलेज पॉवर तो बनाना चाहते हैं लेकिन प्राइमरी एजुकेशन की क्वॉलिटी नहीं सुधार पा रहे हैं। देश में प्राथमिक शिक्षा का हाल यह है कि आज भी पांचवीं कक्षा के करीब आधे बच्चे दूसरी कक्षा का पाठ तक ठीक से नहीं पढ़ सकते। जबकि आठवीं कक्षा के 56 फीसदी बच्चे दो अंकों के बीच भाग नहीं दे पाते।
गैर सरकारी संगठन ‘प्रथम’ के वार्षिक सर्वेक्षण ‘एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट’ (असर) - 2018 से यह जानकारी मिली है। यह रिपोर्ट देश के 596 जिलों के 17,730 गांव के पांच लाख 46 हजार 527 छात्रों के बीच किए गए सर्वेक्षण पर आधारित है।
इसके मुताबिक चार बच्चों में से एक बच्चा साधारण- सा पाठ पढ़े बिना ही आठवीं कक्षा तक पहुंच जाता है। देशभर में कक्षा तीन के कुल 20.9 फीसदी छात्रों को ही जोड़-घटाना ठीक से आता है। स्कूलों में कंप्यूटर के प्रयोग में लगातार कमी आ रही है। 2010 में 8.6 फीसदी स्कूलों में बच्चे कंप्यूटर का इस्तेमाल करते थे। साल 2014 में यह संख्या घटकर 7 फीसदी हो गई जबकि 2018 में यह 6.5 फीसदी पर पहुंच गई। ग्रामीण स्कूलों में लड़कियों के लिए बने शौचालयों में केवल 66.4 फीसदी ही इस्तेमाल के लायक हैं। 13.9 फीसदी स्कूलों में पीने का पानी अभी भी नहीं है और 11.3 फीसदी में पानी पीने लायक नहीं है।
राज्य सरकारें अब भी शिक्षा को लेकर पर्याप्त गंभीर नहीं हैं।
शायद इसलिए कि यह उनके वोट बैंक को प्रभावित नहीं करती। दरअसल समाज के कमजोर तबके के बच्चे ही सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं जबकि संपन्न वर्ग के बच्चे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं। सरकारी स्कूलों की उपेक्षा का आलम यह है कि स्कूलों में शिक्षकों की नियुक्तियां तक नहीं होतीं। एक या दो शिक्षक सभी कक्षा को पढ़ा रहे होते हैं। शिक्षकों को आए दिन पल्स पोलियो जनगणना या चुनावी ड्यूटी में लगा दिया जाता है। कई स्कूलों में शिक्षक दिन भर मिड डे मील की व्यवस्था में ही लगे रह जाते हैं। शिक्षकों की नियुक्तियों में भी भारी धांधली होती है। अक्सर अयोग्य शिक्षक नियुक्त कर लिए जाते हैं। फिर शिक्षकों के प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं होती।
इसके अलावा स्कूलों में ढांचागत सुविधाएं ठीक करने पर भी ध्यान नहीं दिया जाता। ऐसा नहीं है कि सरकारी स्कूलों में सुधार नहीं हो सकता। असल बात दृढ़ इच्छाशक्ति की है।
दिल्ली सरकार ने हाल में अपने स्कूलों पर अतिरिक्त रूप से ध्यान दिया और उसके शानदार नतीजे आए हैं। आज प्राथमिक शिक्षा में आमूल-चूल बदलाव की जरूरत है। उसमें निवेश बढ़ाया जाए, शिक्षकों की नियुक्ति प्रक्रिया बदली जाए। सिलेबस में परिवर्तन हो, छात्रों व टीचरों को कंप्यूटर और आधुनिक तकनीकी साधन उपलब्ध कराया जाए। प्राइमरी एजुकेशन को दुरुस्त करके ही समाज के हर वर्ग को विकास प्रक्रिया का साझीदार बनाया जा सकता है।
सरकार देश की जनता को उल्लू बना रही है और उल्लू लोग हैं कि वें आसानी से अपने आने वाली पीढ़ी को भी उल्लू बनवा रहे हैं अगर सब कुछ ऐसा ही रह तो आने वाली पीढ़ी भी देश की बहुसंख्यक आबादी को उल्लू ही कहेगी इसमे मैं किसी उल्लू नही बना रहा हूँ ,क्योंकि खबर की हेडलाइन के अनुसार जिस देश मे लोग शिक्षा के प्रति गंभीर नही हैं वें साल के 365 दिन किसी न किसी तरहं से उल्लू बनते रहते हैं।
पढ़ें रिपोर्ट-
हम देश को नॉलेज पॉवर तो बनाना चाहते हैं लेकिन प्राइमरी एजुकेशन की क्वॉलिटी नहीं सुधार पा रहे हैं। देश में प्राथमिक शिक्षा का हाल यह है कि आज भी पांचवीं कक्षा के करीब आधे बच्चे दूसरी कक्षा का पाठ तक ठीक से नहीं पढ़ सकते। जबकि आठवीं कक्षा के 56 फीसदी बच्चे दो अंकों के बीच भाग नहीं दे पाते।
गैर सरकारी संगठन ‘प्रथम’ के वार्षिक सर्वेक्षण ‘एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट’ (असर) - 2018 से यह जानकारी मिली है। यह रिपोर्ट देश के 596 जिलों के 17,730 गांव के पांच लाख 46 हजार 527 छात्रों के बीच किए गए सर्वेक्षण पर आधारित है।
इसके मुताबिक चार बच्चों में से एक बच्चा साधारण- सा पाठ पढ़े बिना ही आठवीं कक्षा तक पहुंच जाता है। देशभर में कक्षा तीन के कुल 20.9 फीसदी छात्रों को ही जोड़-घटाना ठीक से आता है। स्कूलों में कंप्यूटर के प्रयोग में लगातार कमी आ रही है। 2010 में 8.6 फीसदी स्कूलों में बच्चे कंप्यूटर का इस्तेमाल करते थे। साल 2014 में यह संख्या घटकर 7 फीसदी हो गई जबकि 2018 में यह 6.5 फीसदी पर पहुंच गई। ग्रामीण स्कूलों में लड़कियों के लिए बने शौचालयों में केवल 66.4 फीसदी ही इस्तेमाल के लायक हैं। 13.9 फीसदी स्कूलों में पीने का पानी अभी भी नहीं है और 11.3 फीसदी में पानी पीने लायक नहीं है।
राज्य सरकारें अब भी शिक्षा को लेकर पर्याप्त गंभीर नहीं हैं।
शायद इसलिए कि यह उनके वोट बैंक को प्रभावित नहीं करती। दरअसल समाज के कमजोर तबके के बच्चे ही सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं जबकि संपन्न वर्ग के बच्चे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं। सरकारी स्कूलों की उपेक्षा का आलम यह है कि स्कूलों में शिक्षकों की नियुक्तियां तक नहीं होतीं। एक या दो शिक्षक सभी कक्षा को पढ़ा रहे होते हैं। शिक्षकों को आए दिन पल्स पोलियो जनगणना या चुनावी ड्यूटी में लगा दिया जाता है। कई स्कूलों में शिक्षक दिन भर मिड डे मील की व्यवस्था में ही लगे रह जाते हैं। शिक्षकों की नियुक्तियों में भी भारी धांधली होती है। अक्सर अयोग्य शिक्षक नियुक्त कर लिए जाते हैं। फिर शिक्षकों के प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं होती।
इसके अलावा स्कूलों में ढांचागत सुविधाएं ठीक करने पर भी ध्यान नहीं दिया जाता। ऐसा नहीं है कि सरकारी स्कूलों में सुधार नहीं हो सकता। असल बात दृढ़ इच्छाशक्ति की है।
दिल्ली सरकार ने हाल में अपने स्कूलों पर अतिरिक्त रूप से ध्यान दिया और उसके शानदार नतीजे आए हैं। आज प्राथमिक शिक्षा में आमूल-चूल बदलाव की जरूरत है। उसमें निवेश बढ़ाया जाए, शिक्षकों की नियुक्ति प्रक्रिया बदली जाए। सिलेबस में परिवर्तन हो, छात्रों व टीचरों को कंप्यूटर और आधुनिक तकनीकी साधन उपलब्ध कराया जाए। प्राइमरी एजुकेशन को दुरुस्त करके ही समाज के हर वर्ग को विकास प्रक्रिया का साझीदार बनाया जा सकता है।