विश्वपति वर्मा
शिक्षा किसी भी देश के विकास के बुनियादी नींव को तैयार करती है. चाहे वह प्राइमरी शिक्षा हो या उच्च शिक्षा, दोनों का उद्देश्य देश और समाज के लिए बेहतर नागरिक तैयार करना होता है. इस वजह से शिक्षा को संविधान में मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया है.
सभी के लिए बेहतर शिक्षा की व्यवस्था करना देश के सरकारों की मुख्य जिम्मेदारी है. लेकिन आंकड़ों और तथ्यों से यह साफ है कि चाहे वह केंद्र की सरकारें रही हों या राज्य की सरकारें, अधिकांश ने इस जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने का ही काम किया है.
देश में 1966 में कोठारी एवं 2018 में "प्रथम" की रिपोर्ट ने भारत मे शिक्षा के बदहाली का आंकड़ा पेश कर सबको चौंका दिया .आजादी के 71 वर्ष बीत जाने के बाद देश मे 28.7 करोड़ लोग अशिक्षित हैं. 10 वीं तक आते-आते 62 फीसदी छात्र स्कूल छोड़ देते हैं. दलित और आदिवासी छात्रों के संदर्भ में यह आंकड़ा 70 से 80 फीसदी तक है. उच्च शिक्षा में भी हालात बहुत ठीक नहीं हैं।
ऐसी स्थिति को देखकर देश के सत्ताधारी पार्टी के ऊपर सवाल खड़ा होता है कि आखिर आम आदमी के लिए सरकारों की नीतियां क्या है?क्या देश के गरीब तबके से आने वाले एक बड़े वर्ग को शिक्षा पाने के का अधिकार नही है? क्या देश शिक्षा के विकास के बगैर देश का विकास संभव है? ऐसे ही तमाम प्रश्नवाचक शब्द सरकारों के नियति पर खड़ा होता है।
इस लिए जरूरी है कि देश की सरकार शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए ठोस कदम उठाए एवं सुनिश्चित हो कि सरकार अपनी आय का 10 फीसदी धन शिक्षा के बजट में खर्च करेगी जिसमे इस बात का ध्यान रखा जाए कि बजट का 50 फीसदी धन प्राइमरी स्कूलों की शिक्षा सुधारने के लिये खर्च किया जाएगा।
अगर इसपर गंभीरता दिखाकर सरकार द्वारा प्राथमिकता के आधार पर शिक्षा के क्षेत्र में काम न किया गया तो शिक्षा की नींव में जो दरारें आई हैं उससे एक दिन भारत के भविष्य का किला ढह जाएगा और दुनिया के कई सारे मुल्क हमे ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में काफी पीछे छोड़ कर अंतरिक्ष मे परचम लहराते हुए नजर आएंगे।
शिक्षा किसी भी देश के विकास के बुनियादी नींव को तैयार करती है. चाहे वह प्राइमरी शिक्षा हो या उच्च शिक्षा, दोनों का उद्देश्य देश और समाज के लिए बेहतर नागरिक तैयार करना होता है. इस वजह से शिक्षा को संविधान में मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया है.
सभी के लिए बेहतर शिक्षा की व्यवस्था करना देश के सरकारों की मुख्य जिम्मेदारी है. लेकिन आंकड़ों और तथ्यों से यह साफ है कि चाहे वह केंद्र की सरकारें रही हों या राज्य की सरकारें, अधिकांश ने इस जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने का ही काम किया है.
देश में 1966 में कोठारी एवं 2018 में "प्रथम" की रिपोर्ट ने भारत मे शिक्षा के बदहाली का आंकड़ा पेश कर सबको चौंका दिया .आजादी के 71 वर्ष बीत जाने के बाद देश मे 28.7 करोड़ लोग अशिक्षित हैं. 10 वीं तक आते-आते 62 फीसदी छात्र स्कूल छोड़ देते हैं. दलित और आदिवासी छात्रों के संदर्भ में यह आंकड़ा 70 से 80 फीसदी तक है. उच्च शिक्षा में भी हालात बहुत ठीक नहीं हैं।
ऐसी स्थिति को देखकर देश के सत्ताधारी पार्टी के ऊपर सवाल खड़ा होता है कि आखिर आम आदमी के लिए सरकारों की नीतियां क्या है?क्या देश के गरीब तबके से आने वाले एक बड़े वर्ग को शिक्षा पाने के का अधिकार नही है? क्या देश शिक्षा के विकास के बगैर देश का विकास संभव है? ऐसे ही तमाम प्रश्नवाचक शब्द सरकारों के नियति पर खड़ा होता है।
इस लिए जरूरी है कि देश की सरकार शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए ठोस कदम उठाए एवं सुनिश्चित हो कि सरकार अपनी आय का 10 फीसदी धन शिक्षा के बजट में खर्च करेगी जिसमे इस बात का ध्यान रखा जाए कि बजट का 50 फीसदी धन प्राइमरी स्कूलों की शिक्षा सुधारने के लिये खर्च किया जाएगा।
अगर इसपर गंभीरता दिखाकर सरकार द्वारा प्राथमिकता के आधार पर शिक्षा के क्षेत्र में काम न किया गया तो शिक्षा की नींव में जो दरारें आई हैं उससे एक दिन भारत के भविष्य का किला ढह जाएगा और दुनिया के कई सारे मुल्क हमे ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में काफी पीछे छोड़ कर अंतरिक्ष मे परचम लहराते हुए नजर आएंगे।