विश्वपति वर्मा-
आज दीपावली है आज पूरे देश मे जगह-जगह दीपक जला कर अंधेरे पर प्रतीकात्मक जीत का जश्न मनाया जाएगा ,लेकिन जब देश -दुनिया में रोशनी के उजाले मे खुली आँखों से देखा जाता है तब दिखाई देता है कि केवल अंधेरे में रोशनी ही नही गरीबी ,भुखमरी और कुपोषण पर छाए हुए अंधेरे को भी खत्म करने की आवश्यकता है।
भूख से उपजी भुखमरी और इन दोनों से विवश हो जब कोई व्यक्ति दिखाई देता है तब महसूस होता है कि अभी हमे बहुत सारी विसंगतियों से लड़ने और उससे निपटने की जरूरत है. सन् 2000 में ये अनुमान लगाया गया था कि 2010 के बाद दुनियां में बेशुमार प्रगति होगी, और आर्थिक स्तर भी ऊँचा होगा। इसी के आधार पर 2020, 2030 और 2050 के तामाम सपने संजो लिए गए। लेकिन इन सभी के बीच किसी ने शायद दुनियां के उस तबके के बारे में नहीं सोचा, जहाँ फटे-टूटे फूस के आंगन में भूख, भुखमरी और भिखारी एक साथ जन्म लेते हैं।
अर्थशास्त्री चाहें कुछ भी कहें, लेकिन उनके खोखले सिद्धान्त जब इन कमज़ोर झोपडि़यों से टकराते हैं तो उनके बड़े-बड़े दावें खोखले नज़र आते हैं। आज के इस महंगाई के दौर में जब खाने-पीने के दाम आसमान छू रहे हो ऐसे में उच्चवर्ग और मध्यवर्ग भी जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जद्दोजहद में लगे हुए हैं। इसके बावजूद भी हम रईसों की दुनियां में गिने ही जाते है।
हजरतगंज में भीख मांगती एक महिला
यूँ तो गरीबी, भूख, भुखमरी और भिखारी का चोली दामन का साथ है लेकिन इस देश की बदकिस्मती है कि यहाँ भूख, भुखमरी और गरीबी किसी को नजर नहीं आती है। भुखमरी और गरीबी जैसे शब्द न तो उदारवादी कहे जाने वाली राजनैतिक नौकरशाही को नजर आती है, और न ही उनके खातों और बहियों में। जैसे हम किसी भूखे भिखारी को देखकर मुँह फेर लेते हैं ऐसे ही खातों और बैलेंस सीटों से इन शब्दों का नदारद होना भी मुँह फेरने जैसा ही है। वैसे तो सरकार निजी हित और औपचारिक निर्णय का विचित्र मेल है। आकड़े सरकार के कुछ काले कोनों में शोर करते घूमते हैं और गरीबों की झोपडि़यों के भीतर भूख से कुलमुलाते बच्चों की चीख में गुम हो जाते हैं।
भारत में योजनाएं तो बड़ी-बड़ी बनती हैं लेकिन उन योजनाओं का लाभ भी अधिकारी वर्ग को ही मिलता है। आम आदमी तक आते-आते या तो यह योजनाएं दम तोड़ चुकी होती हैं या अधिकारियों की फाईलों में ही गुम हो जाती है। योजना आयोग के द्वारा संतुलित विकास के लिए राज्यों को अनुकूल योजनाएं बनाने की नसीहत दी जाती है । लेकिन इन योजनाओं के बनने के बाद इनको क्रियान्वित करने की प्रक्रिया इतनी लचर और भ्रष्ट है कि भूख से पीडि़त व्यक्ति तक इनका लाभ नहीं पहुँचता और उस पर प्रति वर्ष खाद्यान्न पर बढ़ती कीमतें भुखमरी और भिखारी की उत्पत्ति का कारण बनती है।
विश्व बैंक का अनुमान है कि अगर कीमतें दस फीसदी और बढ़ती है, तो दुनिया के एक करोड़ लोग और गरीबी रेखा के नीचे चले जायेंगे। ऐसे में भारत में भूखे पेट सोने वाले 21 करोड़ के आंकड़े और न जाने कितने बढ़ जाएंगे। आज खाद्यानों पर बढ़ती कीमतों की चिन्ता भले ही विश्व बैंक व दुनिया के सरताज़ करें लेकिन यह कड़वा सच है कि बढ़ती आबादी घटते क्षेत्रफल और इन सब से ऊपर दिन प्रति दिन सीमित होते कृषि क्षेत्र की चिन्ता किसी को दिखाई नहीं देती।
धीरे-धीरे भारत सहित पूरी दुनिया में कृषि योग्य भूमि समाप्त होती जा रही है। सच तो यह है कि दुनिया भर के देशों में निजी और सामूहिक तौर पर इतनी राजनैतिक इच्छाशक्ति नहीं है कि भूख और भुखमरी से ग्रस्त गरीब आदमी को उसकी मुश्किलों से बाहर निकाल सके।
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की उदारता देख शुरू में दुनिया भर के गरीब देशों को उनसे उम्मीदें बंधी थी लेकिन ये किसे पता था कि ओबामा प्रशासन सबसे ज्यादा दिवालिया प्रशासन साबित होगा। जहां तक भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रश्न है वह आज भी काफी हद तक खेती पर निर्भर है उसके बाद भी अन्नदाता के।देश मे 21 करोड़ लोग भूखे पेट सोते हैं वंही न जाने कितने किसान प्रतिदिन आत्महत्या कर लेते हैं।
वैसे तो भारतीय अर्थव्यवस्था में गरीबों के लिए कोई जगह नहीं है लेकिन फिर भी कभी-कभार ऐसे लक्ष्य निर्धारित कर दिए जाते हैं जिससे गरीब थोड़ा बहुत लाभान्वित हो जाता है। यूँ तो हमारे संसाधन सीमित हैं इसलिए अगर सब्सिडी ऐसी योजनाओं में दी जाए जो सीधे गरीबों तक पहुँचती हो, तो अमीर इसका अधिक फायदा नहीं उठा पायेंगे। इसलिए लक्षित वित्त -प्रणाली बनाई गई थी। योजना आयोग के आकड़ों के अनुसार 1993-94 में जब वितरण प्रणाली सबके लिए खुली थी तो इसका रिसाव 28 प्रतिशत था लेकिन 2004 -05 में जब यह प्रणाली सिर्फ गरीबों के लिए रह गई तो लीकेज़ 54 प्रतिशत हो गई। इससे गरीबों को तब भी कोई विशेष फायदा नहीं हुआ। लेकिन यहाँ सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि इसका फायदा किसे ज्यादा होगा। सस्ते अनाज या नगद सब्सिडी का फायदा सच में गरीबों का होगा या अमीरों को इसमें भी लाभ होगा।
यद्यपि अर्थशास्त्रियों का मत है कि कैश ट्रांसफर प्रणाली से गरीबों के खातों में सीधे धन जायेगा लेकिन क्या वो यह अनुमान लगाना भूल गये कि कैश डालने के लिए जो बैंक एकाउंट खुलते हैं उन्हें खुलवाने से लेकर रकम आने और निकलवाने तक में ठेकेदारों,जागीदारों अथवा बाबुओं का कमीशन तय होता है।
20 सितंबर 2011 को सुप्रीम कोर्ट में भेजी गई योजना आयोग की रिपोर्ट के अनुसार तो गरीबी रेखा तय करने के लिए भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा पर ग्रामीण क्षेत्रों में 26 रूपये और शहरी क्षेत्रों में 32 रूपये प्रतिदिन व्यक्तिगत रूप से खर्च किया जाना पर्याप्त है। यह तो सीधे-सीधे गरीबों के मुँह पर एक तमाचा है, इससे गरीबी रेखा नहीं भुखमरी रेखा माना जाना चाहिए। क्योंकि दिन प्रतिदिन बढ़ती महंगाई और खाद्य पदार्थों की कीमतों में दिनों दिन होती बढ़ोतरी के चलते 26 और 32 रूपये में कोई एक वक्त की रोटी भी नहीं खा सकता।
फिर सब्जी, दूध, चाय, चीनी, दाल, ईधन, बिजली, पानी, शिक्षा, बीमारी, दवाई और डाक्टर 32 रूपये में कैसे उपलब्ध हो सकता है।
इस लिए इस विषय पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि आखिर हम कैसे गरीबी ,भुखमरी ,और भिखारी के जीवन मे छाए हुए अंधेरे को खत्म कर सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय के नारे को हकीकत में बदलेंगे।