विश्वपति वर्मा-
जरा सोचिए कि आप घर के मुखिया हैं और परिवार में कुछ लोग बीमारी से, इलाज के अभाव में, या अनियंत्रित परिस्थिति में खत्म हो गए. क्या इस दौरान आप अपने प्रकृति प्रेम का प्रदर्शन करने वाले वीडियो और फोटो अपलोड करेंगे? या फिर विपरीत परिस्थितियों से उबारने के लिए कोई ठोस कदम उठाएंगे?
कल दिन भर प्रधानमंत्री मोदी के मोर का शोर मचा रहा तो यूपीए सरकार में गृहमंत्री शिवराज पाटिल याद आ गए, जब सितंबर 2008 में दिल्ली में सीरियल ब्लास्ट हुए तो कांग्रेस के शिवराज पाटिल गृहमंत्री थे वह दिन भर में दो तीन बार नये-नये सूट बदल कर दिखाई पड़े. जनता चिढ़ गई कि देश पर ऐसा गंभीर संकट है और ये आदमी घड़ी-घड़ी सजने-संवरने में लगा है. उनकी खूब आलोचना हुई.
इसके बाद नवम्बर में मुम्बई हमला हुआ तो पाटिल फिर निशाने पर आ गए कि इनसे आंतरिक सुरक्षा नहीं संभल रही. उनका इस्तीफा ले लिया गया. उन्होंने जिम्मा लेते हुए इस्तीफा दे दिया. उसके बाद चिदंबरम ने पद संभाला था.
मोर वाले 1 मिनट 47 सेकेंड के वीडियो में गरीब मोदी जी 6 अलग-अलग आलीशान पोशाक में हैं. वीडियो के कई फ्रेम स्टिल हैं. यानी जनता की तरह मोर की भी दिलचस्पी फोटोशूट में नहीं थी. मोर हो या मनुष्य सबकी सियासत से अलग अपनी चिंताएं हैं. मोर फोटो फ्रेंडली नहीं था. मोर को अपनी प्रकृति के अनुरूप दाना चुनना था, नाचना था. बगिया में स्वच्छंद विचरना था. उसकी नाच में भावहीन बाधा डालकर स्टिल फ़ोटो और कुछ वीडियो शॉट मैनेज करके वीडियो तैयार किया गया. अगर एक सरकार का समूचा कार्यकाल मोर का नाच साबित हो जाए तो इसके अलावा और बचता क्या है?
ज़ाहिर है कि इस वीडियो की शूटिंग कई दिन में हुई है. कई लोग लगे होंगे और न जाने कितना पैसा फूंका गया. सबसे कमाल की बात है कि हमारे प्रधानमंत्री अपने सुरक्षित आवास में लाठी लेकर सैर क्यों करते हैं, ये रहस्य ही है.
शिवराज पाटिल कम से कम सूट बदलकर ही सही, जनता के बीच मौजूद तो थे. अब वह समय जा चुका है. न जनता दबाव बनाने के मूड में है, न सरकार दबाव में आने के मूड में है. दिल्ली दंगा हुआ तो गृहमंत्री चार दिन तक लापता रहे. जब लोग शहरों से पैदल भाग रहे थे तब भी गृहमंत्री गायब थे.
हमारे पीएम खुद आदत से मजबूर हैं. जब पुलवामा हमला हुआ तब वे भी तो जिम कार्बेट पार्क में नौका विहार कर रहे थे और किसी फिल्म शूटिंग कर रहे थे. जिस दिन देश पर हमला हुआ, मोदी जी शाम तक गायब रहे और कहा गया कि अधिकारियों को निर्देश था कि उन्हें डिस्टर्ब न किया जाए.
शाम तक उन्हें सूचना ही नहीं हुई के देश पर हमला हुआ है. हमले के अगले दिन ही मोदी रैलियां कर रहे थे और अमित शाह भी पुलवामा का पोस्टर लगाकर वोट मांग रहे थे. पुलवामा हमले को लेकर जब सर्वदलीय बैठक हो रही थी तब भी प्रधानमंत्री उस बैठक में न जाकर रैली कर रहे थे.
गजब है कि आजतक न पुलवामा हमले की जांच हुई, न किसी की जिम्मेदारी तय हुई कि 300 किलो विस्फोटक भरी गाड़ी सेना के काफिले में कहां से आई? उसके पीछे कौन था? कुछ नहीं पता.
पाटिल सुरक्षा में नाकाम रहे थे तो इस्तीफा दे दिया था. इनकी नाकामी पर भी इन्होंने पुलवामा के पोस्टर लगाकर वोट मांगे कि हमारी नाकामी के लिए हमें वोट दे दो.
कुछ दिन पहले लॉकडाउन के साथ ऐतिहासिक पलायन हुआ, तब पूरी सरकार गायब थी. देश के तमाम इलाकों में बाढ़ है, बेरोजगारी 50 साल के चरम पर है, अर्थव्यवस्था 70 साल के निचले स्तर पर है, कोरोना से 30 लाख से ज्यादा लोग संक्रमित हो चुके हैं और 57 हजार लोग मारे जा चुके हैं. ऐसे में मोर के साथ जंगल-विहार का वीडियो जारी करना संवेदनहीनता की पराकाष्ठा के सिवा कुछ नहीं है.
ये लोकतंत्र डेढ़ लोगों की प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गया है, जहां सामूहिक जिम्मेदारी नाम की कोई चीज नहीं बची है. कर्तव्य, धर्म, ईमान, देश, संस्कृति और संसाधन सब बेचकर वोट और सत्ता सुख ही सबसे बड़ा मकसद बचा है.
जनता का ध्यान बांटने और फिजूल की बातों को चर्चा में बनाये रखने के लिए सरकार के पास 56 तरीके हैं. सरकारें सब ऐसी ही होतीं हैं, नेता भी. बस मोदी बाकियों से 56 कदम आगे हैं.
जिस दिन कोरोना से मौतों का आंकड़ा 56 हजार पहुंचा हो, उसी दिन मोर के साथ “56 तरह की पोज” देते हुए वीडियो डालने के लिए भी 56 इंच का सीना चाहिए. कोई संवेदनशील आदमी हो तो हर दिन हजार मौतों का देखकर सदमे में आ जाए