शार्प शूटर, शानदार एथलीट ... 1999 में पुलिसफोर्स में बतौर सब इंस्पेक्टर भर्ती शख्स ... आज ग्वालियर की सड़कों पर कचरे से खाना ढूंढकर खाने को मजबूर है, दिमागी हालत ठीक नहीं है... यह किसी फिल्मी सीन से कम नहीं लग रहा है. हालांकि, कुछ ऐसा ही हुआ ग्वालियर में.10 नवंबर चुनाव की मतगणना की रात लगभग 1:30 बजे, सुरक्षा व्यवस्था में तैनात दो डीएसपी सड़क किनारे ठंड से ठिठुर रहे भिखारी को देखते हैं तो एक अधिकारी जूते और दूसरा अपनी जैकेट दे देता है और वहां से जाने लगते हैं लेकिन बेहद बुरे हाल में भिखारी जैसे ही डीएसपी को नाम से पुकाराता है तो दोनों सकते में आ गए और पलट कर जब गौर से भिखारी को पहचाना तो वो शख्स था उनके साथ के बैच का सब इंस्पेक्टर मनीष मिश्रा.
दरअसल मतगणना की रात सुरक्षा व्यवस्था का जिम्मा डीएसपी रत्नेश सिंह तोमर और विजय भदौरिया के ऊपर था. मतगणना पूरी होने के बाद दोनों विजयी जुलूस के रूट पर तैनात थे, इस दौरान बंधन वाटिका के फुटपाथ पर एक अधेड़ भिखारी ठंड से ठिठुर रहा था. उसे संदिग्ध हालत में देखकर अफसरों ने गाड़ी रोकी और उससे बात की. दयनीय हालत देख डीएसपी रत्नेश सिंह तोमर ने उन्हें अपने जूते और विजय भदौरिया ने अपनी जैकेट दे दी.
दोनों अधिकारी जब जाने लगे तो भिखारी ने विजय भदौरिया को उनके नाम से पुकारा. दोनों अफसर भी सोच में पड़ गए और एक-दूसरे को देखते रहे और जब दोनों ने उससे पूछा तो उसने अपना नाम मनीष मिश्रा बताया.
मनीष मिश्रा दोनों अफसरों के साथ 1999 में पुलिस सब इंस्पेक्टर में भर्ती हुए थे. इसके बाद दोनों ने काफी देर तक मनीष मिश्रा से पुराने दिनों की बात की और अपने साथ ले जाने की जिद की जबकि वह साथ जाने को राजी नहीं हुआ आखिर में समाज सेवी संस्था से उसे आश्रम भिजवा दिया गया जहां उनकी अब बेहतर देखरेख हो रही है.
मनीष मिश्रा के परिजन भी पुलिस में हैं, उनके भाई इंस्पेक्टर हैं, पिता और चाचा एडिशनल एसपी से रिटायर हुए हैं. चचेरी बहन दूतावास में पदस्थ हैं. 2005 के आसपास वो दतिया जिले में पदस्थ रहे इसके बाद मानसिक संतुलन खो बैठे शुरुआत में 5 साल तक घर पर रहे इसके बाद घर में नहीं रुके यहां तक कि इलाज के लिए जिन सेंटर व आश्रम में भर्ती कराया वहां से भी भाग गए. परिवार को भी नहीं पता था कि वे कहां हैं. पत्नी से उनका तलाक हो चुका है जो न्यायिक सेवा में पदस्थ हैं.