मोबाइल का इतिहास और फोन से भारतीय समाज पर प्रभाव -नीरज कुमार वर्मा "नीरप्रिय" - तहक़ीकात समाचार

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मंगलवार, 22 दिसंबर 2020

मोबाइल का इतिहास और फोन से भारतीय समाज पर प्रभाव -नीरज कुमार वर्मा "नीरप्रिय"

नीरज कुमार वर्मा "नीरप्रिय
लेखक - किसान सर्वोदय इंटर कालेज रायठ बस्ती में प्रवक्ता हैं 

जैसा कि नाम से विदित है कि मोबाइल शब्द का तात्पर्य गतिशीलता से है। मोबाइल के आगमन से सूचनाक्रांति में एक नई दस्तक हुई है। संचार के इस साधन के आगमन से भारतीय मानव समुदाय को काफी कुछ सहूलियत मिली तथा भारतीय समाज में जो एक प्रकार की जकड़न और गतिहीनता विघमान थी उसमें एक सार्थक हस्तक्षेप का आगाज भी हुआ।
 देखा  जाए तो भारत में दूरसंचार क्रांति की शुरुआत सन् 1984 से मानी जाती है जब अमेरिका से लौटे इंजीनियर सेम पित्रोदा तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सलाहकार बने। इन्होंने देश में संचार तकनीकी के विकास पर जोर दिया तथा नये शोध के मकसद से सी-डाॅट अर्थात् सेंटर फार डेवलपमेंट ऑफ टेलीमैटिक्स की स्थापना की। 1985 में डाकविभाग और दूरसंचार विभाग को अलग कर दिया गया तथा 1986 में केन्द्र सरकार ने संचार मंत्रालय की स्थापना की। नब्बे के दशक में जब उदारीकरण की आर्थिक नीतियों का आरम्भ किया गया तो दूर संचार के क्षेत्र में नई कंपनियों का आगमन हुआ। प्रारंभ में लैंडलाइन सेवा हुआ करती थी ऐसे में यह सेवा मात्र कुछ व्यक्तियों तक सीमित थी जो प्रतिष्ठा का विषय समझा जाता था। सन 2000 के बाद सूचना प्रौद्योगिकी में मोबाइल का आगमन क्रांतिकारी ढंग से हुआ और आज के दौर में देखा जाय तो विभिन्न प्रकार के स्मार्टफोन और एंड्रॉयड सेट आमजन के हाथ में है।

 ये तो हुई मोबाइल और उसके इतिहास के संदर्भ में छोटी मोटी बातें। अब हम बात करते है कि मोबाइल का भारतीय समाज पर किस कदर प्रभाव पड़ा है तो देखा जाय भारतीय समाज एक ऐसा समाज है जो विभिन्न प्रकार की अपनी विभिन्नताओं और विभिन्न संस्कृतियों को अपने आपमें समेटे हुए है। यहां के लोगों का यह स्वभाव होता है कि वे किसी चीज़ से चाहे वह निर्जीव हो या सजीव बहुत जल्द भावात्मक रिश्ता जोड़ लेते है। भारतीय परंपरा में यह माना जाता है कि परिचय ही प्रेम का प्रवर्तक होता है इसी का निर्वहन करते हुए प्रत्येक भारतीय का मोबाइल जैसे निर्जीव चीज के प्रति अपना भावात्मक रिश्ता जोड़ने में कोई हिचक नहीं महसूस होती है। 

मोबाइल एक हल्का, छोटा और सुलभ साधन है जिसे हम आसानी से वहन कर सकते है। साथ साथ रखते हुए यह रिश्ता इतना गहरा और भावुक हो जाता है कि यदि कहीं पर मोबाइल गुम हो जाती है तो उस समय जो दुख होता है वह मानवीय होता है। मोबाइल के गुम हो जाने या भूल जाने पर व्यक्ति अकेलापन महसूस करने लगता है ऐसी भावुकता को दूर करने के लिए उसे कुछ वक्त भी लग जाता है।
    मोबाइल के आगमन से हम दूर दराज के मित्रों, रिश्तेदारों, सगे-संबंधियों के साथ अपना संबंध त्वरित साध लेते है। अब हमें चिट्ठी के माध्यम से किसी का हाल पूछना जमाने की बात हो गई है उसका स्थान व्हाट्सएप और एसएमएस ने ले लिया है। इस प्रकार मोबाइल तथा उनके विभिन्न प्रकार के सोशल ऐपों ने दूरी का जो एहसास होता है उसे खत्म कर दिया है। लंबे अंतरालों के बाद अपने मित्रों, सगे-संबंधियों तथा रिश्तेदारों से मिलने की जो उत्सुकता और जिज्ञासा होती थी वह लगभग समाप्त हो गई है। हमें याद आता है अपने बचपन का वह दिन जब हमारे गांव व घरों के लोग दिल्ली तथा मुम्बई जैसे असंवेदनशील शहरों में रहकर दिन-रात मेहनत करके मात्र खुराकी ही चला पाते थे भविष्य के लिए कुछ बचा नहीं पाते थे यहाँ तक कि घर आने के लिए गाड़ी का किराया भी उधार लेकर आते थे पर इन सभी चीजों से हमें उस दौर में क्या मतलब थे हम तो केवल उनके उनके मुख उन अनजान शहरों के संबंध में विभिन्न बातों जैसे वहाँ के लोगों के रहन सहन, वहाँ की सुविधाओं असुविधाओं, वहां की बड़ी बड़ी बिल्डिंगों आदि के बारे में सुनकर खाफी रोमांचित होते थे। इसी प्रकार चिट्ठी पढ़ने में जो संवेदना थी कि पढ़ने वाला और सुनने वाला दोनों कुछ क्षण के लिए भावुक हो जाते थे सचमुच आज ऐसी संवेदनशीलता को मोबाइल ने छीन लिया है तथा मोबाइल पर झगड़े भी होने लगे है।

     वर्तमान समय में मोबाइल क्रांति के आगमन से भारतीय समाज में जो काफी वर्जनाएं थी वे कुछ हद तक कम हुई है। प्रारंभ में देखा जाता था कि मोबाइल का प्रयोग पुरुष प्रधान समाज में सिर्फ पुरुष ही करता था या घर में एक ही मोबाइल होती थी जिसपर सभी बात तो कर सकते थे पर उस मोबाइल का मालिक सिर्फ़ पुरूष होता था पर अब इन परंपराओं में बहुत कुछ परिवर्तन हुआ है तथा अब घूंघट में रहने वाली बहू के पास मल्टीमीडिया सेट होता है जिससे वह अपने पति तथा सगे संबंधियों से बेहिचक बात कर लेती है। यह तो रहा मोबाइल का सकारात्मक पहलू यदि हम  इसके नकारात्मक पक्ष की तरफ देखे तो मोबाइल के अत्याधिक प्रयोग से भारतीय परिवार में तरह तरह की कलह भी पैदा होने लगी है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि गलत नंबर से काल आने पर दो अनजान लड़के लड़कियों में संबंध बन जाते है धीरे-धीरे ये संबंध इतने प्रगाढ़ हो जाते है कि ये अवयस्क अवस्था में अपराध कर बैठते है। साथ ही स्मार्टफ़ोन के अत्यधिक प्रयोग से बच्चों की आंखें कमजोर होना आम बात हो गई है। अक्सर देखा जाता है कि अधिकांश बच्चे मोबाइल से चिपके रहते है जिससे मां - बाप व बच्चों में अक्सर खींचातानी होती रहती है। विभिन्न प्रकार के सर्वेक्षणों में देखा जा रहा है कि इस मशीनी युग में स्मार्टफ़ोन पर अत्यधिक निर्भरता के कारण बच्चों का किताबों के प्रति लगाव कम हो गया है। किताबों के प्रति लगाव के कमी का परिणाम यह हो रहा है कि बच्चों में विचार-विश्लेषण व समझने की क्षमता कम होती जा रही है। अब उनके पढ़ाई का मकसद सिर्फ़ नौकरी पाना बनता जा रहा है न कि समझदार बनना। येन-केन प्रकारेण वे तथ्यात्मक अध्ययन करके इसमें सफल भी हो जा रहे हैं। किताबों और गुरुओं के प्रति जो एक भावात्मक लगाव होता था वह इस गुगलगुरु के आने से खत्म होता जा रहा है। 

मुझे याद आता है कि एक समय ऐसा था कि जब साक्षात्कारकर्ता किसी विषय वस्तु से संबंधित प्रश्न पूछने के बजाय सिर्फ़ अभ्यर्थी के अध्ययन सामग्री अर्थात् उसके द्वारा पढ़ी गई किताबों और उसके लेखक का नाम जानकर उसके मानसिक स्तर का अनुमान लगा लेते थे तथा इसी आधार पर उसे अच्छे अंक भी दे देते थे। आगे भी क्या ऐसा संभव होगा? इस गुगलगुरु वाली पीढ़ियों के आने से यह विचारणीय प्रश्न है।

    ऐसे में मेरा सुझाव है कि मोबाइल का सीमित और सुनियोजित प्रयोग करते हुए इस भारतीय समाज में जो विसंगतियां आ गई है उसे दूर किया जा सकता है। किसी भी चीज़ का अति सदैव विनाशकारी होता है यह हमें स्मरण रखना चाहिए।
        

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