नेहरू का लोकतांत्रिक स्वरूप Nehru's democratic form नीरज कुमार वर्मा - तहक़ीकात समाचार

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शनिवार, 16 जनवरी 2021

नेहरू का लोकतांत्रिक स्वरूप Nehru's democratic form नीरज कुमार वर्मा

         नीरज कुमार वर्मा "नीरप्रिय"
किसान सर्वोदय इंटर कालेज रायठ बस्ती उ. प्र. 
               9670949399

15 अगस्त सन 1947 ई. को भारत देश अंग्रेजों की बेड़ियों से मुक्त होकर खुली हवा में साँस ली। आजादी के बाद देखा जाय तो भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि रही है - लोकतांत्रिक गणराज्य के रुप में। ऐसे में जवाहरलाल नेहरु के लोकतांत्रिक स्वरूप के विषय में जानने से पहले लोकतंत्र के विषय में चर्चा करना आवश्यक है। लोकतंत्र शब्द लोक और तंत्र नामक दो शब्दों के योग से बना है जिसमें लोक शब्द का आशय 'जनता' है तथा तंत्र शब्द का आशय 'शासन' से है। इस प्रकार लोकतंत्र का सामान्य अर्थ होता है 'जनता का शासन'। लोकतंत्र के लिए प्रजातंत्र, जनतंत्र आदि शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है। 

लिंकन ने लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए कहा था-"लोकतंत्र जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन है।" कहने का आशय यह है कि लोकतंत्र में जनता ही सर्वोच्च शक्ति है जिसमें सभी शक्तियां परोक्ष रुप से निहित होती है।

    प्राचीन भारत में देखा जाय तो भारत में सुदृढ़ शासन व्यवस्था विमान थी। इसके साक्ष्य हमें सिक्कों, अभिलेखों व प्राचीन साहित्य आदि में मिलते है। विभिन्न विदेशी यात्रियों के द्वारा भी इस विषय में वर्णन मिलता है। प्राचीन भारत में आजकल की तरह ही शासक एवं शासन के पदाधिकारियों के निर्वाचन की व्यवस्था विघमान पर एक बात जरुर थी कि उस समय सभी वर्ग को शासन करने व सभी नागरिक को मतदान करने का अधिकार नहीं था। ऋग्वेद व कौटिल्य साहित्य से इस बात की पुष्टि होती है। जिस प्रकार वर्तमान समय में संसद है उसी प्रकार प्राचीन समय में परिषद होती थी। वर्तमान संसदीय सत्र की तरह ही परिषदों का भी अधिवेशन नियमित रूप से होता था। किसी भी मुद्दे पर निर्णय करने से पूर्व उस पर खुलकर बहस की जाती थी उसके बाद सर्वसम्मति से निर्णय का प्रतिपादन किया जाता था तथा सबकी सहमति न होने पर बहुमत की प्रक्रिया को अपनाया जाता था।

 यह तो रही प्राचीन भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था। अब हम बात करेंगे वर्तमान भारत में लोकतांत्रिक ढांचे के विषय में। लोकतंत्र शब्द को यदि व्यापक रुप में देखा जाता तो यह केवल शासन तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज का एक संगठन भी है। सामाजिक आदर्श के रुप में लोकतंत्र वह समाज है जहाँ पर किसी के साथ जाति पाँति, धर्म, संप्रदाय के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाता है और न ही कोई विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग ही होता है। इस प्रकार लोकतंत्रीय समाज ही लोकतांत्रिक राज्य का आधार कहा जा सकता है। आधुनिक भारत में लोकतंत्र रुपी पौधे को रोपने व पुष्पित पल्लवित करने का श्रेय नेहरु को दिया जाता है। प्रधानमंत्री के रुप में सन 1947-1964 ई. तक उन्होंने आधुनिक लोकतांत्रिक राष्ट्र की नींव डालने में अग्रणी भूमिका निभाई।

 जिस समय भारत आजाद हुआ उस समय बंटवारे के कारण हिंदू और मुस्लिम समाज में जो धर्म के नाम पर नफरत की भावना चरम पर थी तथा भारतीय समाज जो जाति के आधार पर विभाजित है, इन सबमें परस्पर समन्वय की भावना स्थापित करते हुए एक धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक गणराज्य की स्थापना करना नेहरु  के सामने एक खुली चुनौती थी। इतना ही नहीं कांग्रेस के भीतर जो दक्षिणपंथी धड़ा था वह भी जाति व्यवस्था व पितृसत्ता में विश्वास करता था। परंतु नेहरु एक आधुनिक व वैज्ञानिक सोच वाले व्यक्तित्व थे जिन्हें जाति व्यवस्था व वर्ण व्यवस्था में बिल्कुल विश्वास नहीं था और आधुनिक लोकतांत्रिक भारत में उसे किसी भी रुप में स्वीकार नहीं किया। भले ही राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी वर्ण व्यवस्था को अंतिम क्षण तक आदर्श व्यवस्था कहते रहे व अंतिम समय तक रामराज्य के पैरोकार बने रहे। इन सभी मामलों में नेहरुजी, आंबेडकर के साथ सदैव खड़े दिखाई दिए।

 जवाहरलाल नेहरु के व्यक्तित्व में धर्मनिरपेक्षता के साथ वर्ण- जाति व पितृसत्ता के प्रति निरपेक्षता सदैव विघमान रही है। इन सबका सबूत उनके नेतृत्व में बनी कमेटी के द्वारा प्रस्तुत भारतीय संविधान की प्रस्तावना है-"हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसम्पन, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार अभिव्यक्त, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर 1949 ई. (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते है। 
 भले ही समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और अखंडता शब्द पर वे संविधान संशोधन 1976 में जोड़े गये लेकिन इसकी भावना संविधान की प्रस्तावना में पहले से ही निहित है। 

     उस दौर कि यदि हम बात करे तो कांग्रेस के भीतर दक्षिण पंथी ताकते मौजूद थी। गांधी जी को देखा जाय तो वे वैचारिक रुप से हिंदूवादी ही थे भले ही हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षपाती थे और साम्प्रदायिक सौहार्द्र की बाते करते थे। उन्होंने राम-राज्य को ही आदर्श राज्य माना है जो उनकी हिंदुत्व की भावना को उजागर करता है। यदि हम भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद की बात करें तो हिंदू धर्म के प्रति उनका झुकाव जगजाहिर होता है। जब राष्ट्रपति के रूप में इन्होंने काशी के ब्राह्मणों के पांव धुले तो नेहरु ने इस पर आपत्ति जताई थी। इसी प्रकार हिंदू कोडविल जो हिंदू महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले अधिकार दिलाने की बात करता है का इन्होंने विरोध किया था। जबकि नेहरू और आंबेडकर ने इस बिल का समर्थन किया था। 

इसी प्रकार सरदार बल्लभभाई पटेल को देखा जाय तो उनका भी झुकाव हिंदूवाद की तरफ परिलक्षित होता है। जब के. एम. मुंशी ने सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कार्यक्रम का आगाज किया तो पटेल ने उनका समर्थन किया था। ये तो रही कांग्रेस के अंदर वाले धड़े की बात और यदि हम कांग्रेस के बाहर देखे तो हिंदू महासभा, आरएसएस और जनसंघ ने भारत देश को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए पूरा जोर लगाए हुए थे। ऐसे में नेहरु कि वह वैज्ञानिक सोच ही थी जो उन्हें धर्मनिरपेक्ष आधुनिक राष्ट्र की तरफ ले जाती है। उनके इस सोच में धर्म, ईश्वर आदि के लिए कोई जगह नहीं थी। उन्होंने आधुनिक लोकतंत्रात्मक राज्य में लोगों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के संचालन में धर्म को कोई स्थान नहीं दिया। उनका मानना था कि धर्म एक व्यक्तिगत आस्था का विषय होता है इसे मानने या न मानने के लिए किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता है। 

  यह सही है कि नेहरु एक वैज्ञानिक सोच के व्यक्तित्व थे जिन्होंने आधुनिक भारत के निर्माण में महती भूमिका अदा की। पर कहीं-कहीं इनके व्यक्तित्व में कुछ कमियां भी दिखाई पड़ती है। देखा जाय तो नेहरु में सत्तावादी अलोकतांत्रिक चरित्र चरम पर परिलक्षित होता है जब वे केरल में चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त कर देते हैं। यघपि उन्होंने तेलंगाना की कम्युनिस्ट सरकार को भी बर्खास्त किया था पर वे हथियारबंद थे जो उचित था। केरल की कम्युनिस्ट सरकार की बर्खास्तगी मे उनके तानाशाही रुप की झलक मिलती है। इसी प्रकार यदि आरक्षण के मसले पर बात करे तो काकाकलेलकर आयोग ने  जब पिछड़े वर्ग पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की तो नेहरु ने कहा तो इस तरह तो सभी भारतीय पिछड़े है। धर्मपरिवर्तित दलितों के आरक्षण को जब प्रेजिडेंसियल आर्डर के द्वारा समाप्त कर दिया गया तो उस समय नेहरु ने कुछ कहा नहीं बल्कि खामोश रहें। नेहरु की 'डिस्कवरी आफ इंडिया' एक महान रचना है जिसमें इन्होनें जाति-वर्ण व्यवस्था पर आधारित जो भारतीय समाज के अंतर्विरोध है उस पर इन्होंने ध्यान देने के बजाय उसकी अप्रत्यक्ष रुप से प्रशंसा भी की थी। राम मनोहर लोहिया ने 'भारत विभाजन के गुनाहगार' नामक किताब में नेहरु को विभाजन के लिए दोषी माना है तथा बताया है कि किस प्रकार विभाजन के समय इन्हें सत्ता पाने की जल्दबाजी दिखती है। 

 इस प्रकार नेहरु के व्यक्तित्व में कुछ नकारात्मक पहलू विघमान थे। पर यह नकारात्मकता होते हुए उनमें सकारात्मकता अधिक थी। जब भारत का संविधान बनकर तैयार हो गया तो उनके समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि इसे कैसे जमीन पर उतारा जाए? प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने इसे बखूबी अंजाम दिया। उन्होंने विभिन्न वैज्ञानिक संस्थाओं की नींव डाली तथा भारत के औद्योगिकीकरण और आधुनिकीकरण में महती भूमिका का निर्वाहन किया। इन्होंने आधुनिक भारत के निर्माण में तीन तत्वों पर बहुत जोर दिया। पहला, धर्म के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा दूसरा, जाति-वर्ण या लिंग के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा और तीसरा, भारत किसी भी देश का पिछलगुआ नहीं बनेगा यानि अपनी स्वतंत्रता और संप्रभुता को बरकरार रखेगा किसी के पास गिरवी नहीं रखेगा। ऐसे में हम कह सकते है कि नेहरू के विचारों में मानवीय गरिमा का बड़ा ही कद्र था। वे आधुनिक मूल्यों पर आधारित भारत की स्थापना करना चाहते थे जहाँ का प्रत्येक नागरिक विज्ञान सम्मत विचार रखे। उसके मस्तिष्क में धर्म, अंधविश्वास, कल्पना आदि की कोई जगह न हो। प्रत्येक नागरिक का मस्तिष्क तर्कशील हो जिससे हर विषय वस्तु  के संदर्भ में चिंतन करके कुछ निष्कर्ष निकाल सके। पर आज देखा जा रहा है कि आधुनिकीकरण के नाम पर मनुष्य के मस्तिष्क को कुंद बनाया जा रहा है। वह केवल भौतिक सुख सुविधाओं को ही आधुनिकीकरण मान ले रहा है। वर्तमान में कुछ ऐसी सत्ताएं काबिज है जो आधुनिकीकरण के नाम पर मध्यकालीन मूल्यों पर जोर दे रही है इनसे सावधान रहना होगा। ऐसे में हम कह सकते है कि आधुनिक लोकतांत्रिक भारत की स्थापना में नेहरू के योगदान के संदर्भ में कोई ईमानदार नागरिक इंकार नहीं कर सकता है। 
      

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