लेखक-नीरज कुमार वर्मा नीरप्रिय
किसान सर्वोदय इंटर कालेज रायठ बस्ती
डाॅ. आम्बेडकर के पत्रकारिता के विषय में चर्चा करने से पहले उनके व्यक्तित्व व सामाजिक अवधारणा के विषय में जानना आवश्यक है। आम्बेडकर समाज सुधार के क्षेत्र में, राजनीति के क्षेत्र में,विधि के क्षेत्र में, संविधान के वास्तुकार के क्षेत्र में एक आईकान थे। उन्होंने उस समय एक असाधारण उच्च योग्यता अर्जित की जब हिन्दू समाज में एक दलित व्यक्ति को सम्मानजनक जीवन जीना भी असंभव था।
उन्होंने बी. ए. मुम्बई विश्वविद्यालय, एम. ए. कोलंबिया विश्वविद्यालय, एमएससी लंदन स्कूल ऑफ इकाॅनामिक्स, पी-एच. डी. कोलंबिया विश्वविद्यालय, डीफिल, डिएससी. लंदन स्कूल ऑफ इकाॅनामिक्स, एलएलडी कोलंबिया विश्वविद्यालय, डि. लिट उस्मानिया विश्वविद्यालय से प्राप्त की। संविधान निर्माण के लिए जब प्रारुप समिति का गठन हुआ तो उसमें सबसे ज्यादा पढ़े लिखे व्यक्ति डाॅ. आम्बेडकर थे। उस प्रारुप समिति के सदस्यों में यदि योग्यता के मामले में कोई इनके सामने टिक पाते थे तो वे थे वी. एन. राव, बाकी अन्य लोगों की तो इनसे तुलना ही नहीं की जा सकती थी। इतना शिक्षित और सफल व्यक्तित्व होने के बावजूद भी आम्बेडकर ने संघर्ष का रास्ता चुना। उस समय ये इतने काबिल तो हो ही गये थे कि एक सुखद और आरामतलब जीवन गुजार सकते थे। पर इन्होंने सारे सुखों को छोड़कर समाज सुधार, दलितों के उत्थान व सामाजिक न्याय के लिए त्याग के रास्ते को अपनाया। यह आंबेडकर का उस वंचित व पिछड़े समाज के लिए त्याग व बलिदान ही है कि हम प्रतिवर्ष 14 अप्रैल को उन्हें श्रद्धा के साथ स्मरण करते हैं।
देश, समाज व दलितों के लिए उन्होंने संविधान व अपनी लेखनी के माध्यम से जो कार्य किए है उसके लिए यह देश व समाज उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता है। समाज सुधार के क्षेत्र में उनका स्थान वैसा ही है जैसाकि मध्ययुग में कबीर का था। जिस तरह से कबीर ने अपने दोहो के माध्यम से जाति प्रथा, अंधविश्वास आदि का खंडन किया तथा एक दिशाहीन समाज को एक दिशा देने का सतत् प्रयत्न किया है। ठीक उसी तरह से डाॅ. आम्बेडकर ने हिंदू धर्म में प्रचलित अस्पृश्यता, वर्णव्यवस्था आदि का खंडन किया है। इन्होने दलितों व पिछड़ों में आत्मविश्वास, आत्मज्ञान, समानता व स्वतंत्रता की भावना को भरकर समाज को एक नई दिशा देने की कोशिश की है। इस प्रकार आंबेडकर विशुद्ध रूप से क्रांतिकारी थे पर वे संवैधानिक आधार पर सामाजिक समस्याओं का समाधान ढूंढते थे। क्योंकि उनका मानना था कि यदि ऐसा तरीका नहीं अपनाया गया तो समाज में अराजकता का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। उनका सिद्धांत वाक्य - 'शिक्षित बनों, संगठित रहो, और संघर्ष करो' था। इन्हीं सिद्धांतों पर उन्होंने कार्य किया।
डाॅ. आम्बेडकर ने जातिभेद खत्म करने और सामाजिक न्याय के लिए बहुत से प्रयास किए। उनका मानना था कि दलितों को जागरुक करने व उन्हें संगठित करने के लिए उनका अपना एक स्वंय का मीडिया होना नितांत आवश्यक है। इसी को कार्य रुप मे परिणति करने के लिए उन्होंने पत्रकारिता में भी अपना हाथ आजमाया। इस क्षेत्र में उन्हें एक अच्छा खासा मुकाम भी प्राप्त हुआ। उन्होंने 31 जनवरी 1920 को मराठी पाक्षिक 'मूकनायक' का प्रकाशन प्रारंभ किया। मूकनायक से तात्पर्य है मूक लोगों का नायक। मूक लोगों का जहाँ तक सवाल है वे दलित, पिछड़े व अल्पसंख्यक है। जब इन्होंने ने मूकनायक पत्र का संपादन किया तो इसके प्रवेशांक में इसके औचित्य के विषय में इन्होंने लिखा था-"बहिष्कृत लोगों पर हो रहे और भविष्य में होने वाले अन्याय के उपाय सोचकर उनकी भावी उन्नति व उनके मार्ग के सच्चे स्वरुप की चर्चा करने के लिए वर्तमान पत्रों में जगह नहीं है। अधिसंख्य समाचार पत्र विशिष्ट जातियों के हितसाधन करने वाले है। कभी कभी उनका अलाप इतर जातियों को अहितकारक होता है। " उसी संपादकी में आम्बेडकर ने लिखा था-" हिंदू समाज एक मीनार है। एक एक जाति इस मीनार का एक एक तल है। और एक से दूसरे तल में जाने का कोई मार्ग नहीं है। जो जिस तल में जन्म लेता है, उसी तल में मरता है। " इनके इस टिप्पणी का आशय यह है कि हिंदू समाज एक जड़ समाज है। जहाँ पर व्यक्ति के जाति व कर्तव्य का निर्धारण उसके जन्म से ही तय हो जाता है। और वह इससे इतर करने के बारें में कुछ सोच भी नहीं पाता है।
आम्बेडकर का मानना था कि अछूतों के साथ जो अन्याय व भेदभाव होते है उनके खिलाफ संघर्ष का कार्य केवल दलित पत्रकारिता ही कर सकती है। यही पत्रिकारिता है जो उनकी आवाजों को मुखर रुप से उठा सकती है। 14 अगस्त 1920 के संपादकीय में उन्होंने लिखा था - 'कुत्ते बिल्ली जो अछूतों का भी जूठा खाते है, वे बच्चों का मल भी खाते है। उसके बाद वरिष्ठों-स्पृश्यों के घरों में जाते है तो उन्हें छूत नहीँ लगती। वे उनके बदन से लिपटते-चिपकते है। उनकी थाली तक में मुंह डालते है तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होती। लेकिन यदि अछूत उनके घर काम से भी जाता है तो पहले से बाहर दीवार से सटकर खड़ा हो जाता है। घर का मालिक दूर से ही देखते ही कहता है-अरे अरे दूर हो, यहाँ बच्चे के टट्टी डालने का खपड़ा रखा है, तू उसे छुएगा। ' डाॅ. आम्बेडकर की यह टिप्पणी भारतीय समाज में जाति व्यवस्था के अन्तर्गत अछूतों की विकट स्थिति को व्यक्त करती है। उनकी यह टिप्पणी भारतीय समाज में इन अछूतों की स्थिति जानवरों से भी गई गुजरी है को प्रकट करती है। समाज में दलितों को कुत्ते, बिल्ली के बराबर भी सम्मान नहीं मिलता था। उन्होंने इस पत्र में केवल अस्पृश्यता की ही समस्या नहीं उठायी है बल्कि उन्होंने दलितों की हिस्सेदारी पर भी चर्चा की है। 28 फरवरी 1920 को मूकनायक के 'यह स्वराज्य नहीं हमारे ऊपर राज्य है' शीर्षक संपादकीय में लिखा था कि यदि हमें स्वराज्य मिले तो उसमें अछूतों का भी हिस्सा होना चाहिए।
डाॅ. आम्बेडकर ने शिक्षा के प्रति दलितों को अपनी पत्रकारिता के माध्यम से जागरुक बनाने का कार्य किया। यही नहीं वे अछूतो की कमजोरियों को बखूबी जानते थे यही कारण है कि जब कभी अवसर आता तो वे खुलकर आलोचना भी करते थे। बहिष्कृत भारत नामक पत्र के 22 अप्रैल 1927 के अंक के संपादकीय में यह टिप्पणी की थी - 'आचार - विचार और आचरण में शुद्धि नहीं आयेगी, अछूत समाज में जागृति और प्रगति के बीज कभी नहीं उगेंगे। आज की स्थिति पथरीली बंजर मनःस्थिति है। इसमें कोई भी अंकुर नहीं फूटेगा इसलिए मन को सुसंस्कृति करने के लिए पठन-पाठन व्यवसाय का आलंबन करना चाहिए।' शिक्षा की बात तो उन्होंने अपने पत्रों में की है साथ ही साथ उन्होंने दलितों व पिछड़ों के लिए आरक्षण के सवाल को भी उठाया। 20 मई 1927 के बहिष्कृत भारत के संपादकीय में बाबा साहब टिप्पणी करते है-' पिछड़े वर्ग को आगे लाने के लिए सरकारी नौकरियों में उन्हें प्रथम स्थान मिलना चाहिए। यह बात प्रगतिशील लोगों को अस्वीकार नहीं है परन्तु यदि धन के स्वामी कुबेर पर अपनी संपत्ति सब लोगों में समान रुप से बांटने का प्रसंग आये तो योग्य मांग (अतिशूद्र) जाति के व्यक्ति को योग्य जोशी अपनी वृत्ति उसकों अर्पण करने के प्रसंग में प्रोग्रेसिव व्यक्ति का भी आश्चर्य से मुंह खुला रह जायेगा।
आगे चलकर बाबा साहब ने समाज में समता लाने के उद्देश्य से समता नामक पत्रिका निकाली। यह एक पाक्षिक पत्रिका थी। यह पत्रिका इन्होंने सन् 1928 ई. में निकाली। कुछ समय बाद इस पत्रिका का नाम बदलकर जनता कर दिया। सन् 1954 ई. में इस पत्रिका का नाम अंततः प्रबुद्ध भारत कर दिया गया। इन्होंने 'द अनटेचबल :ए थिसिस आन द ओरिजन ऑफ अनटेचबिलिटी' में लिखा है - 'हिंदू सभ्यता जो मानवता को दास बनाने और उसका दमन करने की एक क्रूर युक्ति है और इसका उचित नाम बदनामी होगा। एक सभ्यता के बारे में और क्या कहा जा सकता है जिसने लोगों के एक बहुत बड़े वर्ग को विकसित किया। एक मानव से हीन समझा गया और जिसका स्पर्श मात्र प्रदूषण फैलाने का पर्याप्त कारण है। '
इस प्रकार बाबा साहब के पत्रकारिता में जो विभिन्न प्रकार की तल्ख टिप्पणियाँ मिलती है उन्हें भारतीय समाज व्यवस्था में मुठभेड़ के रुप में देखा जाना चाहिए। कबीर के समान ये भी जब किसी विषमता पर टिप्पणी करते थे तो पूरे जोश के साथ। समाज में जो विसंगतियां, विषमताएं आदि जाति धर्म के नाम पर फैली है उस पर न केवल ये प्रहार करते है बल्कि इससे कैसे निकला जाय वह रास्ता भी सुझा देते है। ये समाज में जो यथास्थिति की परंपरा है उसे बदलने की पुरजोर कोशिश अपनी पत्रकारिता के माध्यम से करते है। बाबा साहब का लेखन व पत्रकारिता हमें इस बात के लिए आगाह करता है कि समाज में जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर जो भेदभाव है इससे मुक्ति के लिए हमे ईमानदारी से कोशिश करनी चाहिए। उन्होंने अपनी पत्रकारिता के जरिए दलितों, पिछड़ों व महिला समाज के संवेदनशील मसले को मुख्यधारा में लाने का प्रयत्न किया। आज हम सभी को आंबेडकर जयंती के अवसर पर उनके कार्यो से सीख लेते हुए उनके मूल्यों को जीवन में उतारने का संकल्प लेते है।