शम्स ताहिर खान (आज तक)
इजराइल अगर जानबूझकर फिलिस्तीन से जंग चाहता है, तो इससे उसे क्या फायदा होगा? जानकारों की मानें तो इजराइल ने जब-जब फिलिस्तीन से जंग लड़ी तो उसे फायदा ही हुआ है. उसने फिलिस्तीन की जमीन पर कब्जा किया और इस बार भी वो यही कोशिश कर रहा है. जानकार ये भी मानते हैं कि ये जंग गाजा या वेस्ट बैंक तक सीमित रही तो ठीक है. अगर ये मामला यरूशलम तक पहुंच गया तो ये दुनिया तीसरे विश्वयुद्ध की दहलीज पर खड़ी नजर आएगी.
1948 से पहले फिलिस्तीन का भूगोल कुछ और ही था. तब भी वहां कुछ यहूदी शरणार्थी रहते थे. मगर तब फिलिस्तीन पर सौ फीसदी फिलिस्तीनियों का कब्जा था और इजराइल का तब नामोनिशान नहीं था. 1948 में अंग्रेजों ने फिलिस्तीन के दो टुकड़े कर दिए. जमीन का 55 फ़ीसदी टुकड़ा फिलिस्तीन के हिस्स में आया और 45 फ़ीसदी इज़राइल के हिस्से में. इसी के बाद 14 मई 1948 को इज़राइल ने खुद को एक आज़ाद देश घोषित कर दिया. और इस तरह दुनिया में पहली बार एक यहूदी देश का जन्म हुआ.
मगर यरूशलम को लेकर लड़ाई अब भी जारी थी. क्योंकि इजराइल और फ़िलिस्तीन दोनों यरूशलम को अपनी राजधानी बनाना चाहते थे. फिर धार्मिक लिहाज़ से भी यरूशलम ना सिर्फ मुस्लिम और यहूदी बल्कि ईसायों के लिए भी बेहद ख़ास था. तब ऐसे में संयुक्त राष्ट्र बीच में आया और उसने एक तरह से फ़िलिस्तीन के एक और टुकड़ा अलग कर दिया. अब यरूशलम का आठ फ़ीसदी हिस्सा संयुक्त राष्ट्र के कंट्रोल में आ गया. जबकि 48 फ़ीसदी ज़मीन का टुकड़ा फिलिस्तीन और 44 फ़ीसदी टुकड़ा इजराल के हिस्से में रह गया. मगर ज़मीन की लड़ाई इसके बाद भी जारी रही.
1956, 1967, 1973, 1982 में इज़राइल फ़िलिस्तीन लड़ते रहे और इज़राइल लगातार फ़िलिस्तीन की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करता रहा और फिर नौबत ये आ गई कि पहले 55 फ़ीसदी और फिर 48 फ़ीसदी से सिमटते हुए 22 फ़ीसदी और अब 12 फ़ीसदी ज़मीन के टुकड़े पर ही फ़िलिस्तीन सिमट कर रह गया है. जबकि अधिकारिक रूप से यरूशलम को छोड़ कर इज़राइल लगभग बाक़ी के 80 फ़ीसदी इलाक़े पर क़ब्ज़ा कर चुका है. ले-देकर फ़िलिस्तीन के नाम पर अब दो ही इलाक़ा बचे हैं. एक गाजा और दूसरा वेस्ट बैंक. वेस्ट बैंक अमूमन शांत रहता है. जबकि गाजा गरम. क्योंकि गाजा पर एक तरह से हमास का कंट्रोल है और मौजूदा तनाव इसी गाजा और इज़राइल के बीच है. सारे रैकेट और बम इसी गाजा से इजराइल पर गिराए जा रहे हैं और इजराइल इसी गाजा पर बम बरसा रहा है.
इजराइल का समर्थन नहीं कर सकता भारत अब सवाल ये है कि इस वक्त भारत किसके साथ खड़ा है? तो जवाब ये है कि भारत ने अभी तक इस मसले पर अपना रुख ना तो रखा है और न ही साफ किया है. दरअसल, भारत के सामने दो मुश्किलें हैं. पहली इजराइल को खुश करने का मतलब अरब देशों से रिश्ते ख़राब करना जो भारत चाहता नहीं है. और दूसरा ये कि भारत फ़िलिस्तीनी ज़मीन पर इजराइल के कब्जे का समर्थन भी नहीं कर सकता. क्योंकि ऐसा करने से पाकिस्तान के कब्जे वाले पाक अधिकृत कश्मीर और चीन के कब्जे वाले अक्साई चीन को वापस हासिल करने में अड़चनें आ सकती हैं. क्योंकि जब हम दूसरों के अवैध कब्जे को सही ठहराएंगे तो पाकिस्तान और चीन को पीओके और अक्साई चीन का मौक़ा मिल जाएगा. इसीलिए भारत की शुरू से ये नीति रही है कि उसने फ़िलिस्तीन पर इजराइल के कब्जे का हमेशा विरोध किया है.
इजराइल और फिलिस्तीन पर भारत का स्टैंड हमेशा से साफ रहा है. 1948 के बाद से ही यरूशलम संयुक्त राष्ट्र के अधीन है. वहां ना तो इजराइल की सत्ता है और ना ही फिलिस्तीन की. लेकिन डोनाल्ड ट्रंप के शासनकाल में अचानक इजराइल ने यरूशलम को अपनी राजधानी बनाने की कोशिश की थी. इतना ही नहीं उसने अमेरिकी दूतावास को तेलअवीव से यरूशलम शिफ्ट कर दिया था. इस घटना को लेकर हंगामा हुआ. संयुक्त राष्ट्र ने इस इजराइल के इस कदम की कड़ी निंदा की. इजराइल की निंदा करने वाले तमाम देशों में भारत भी शामिल था.
इसके अलाव भारत एक अकेले इजराइल को खुश करने के लिए अरब देशों की नाराज़गी भी मोल नहीं लेना चाहता. भारत का अरब देशों के साथ करीब 121 अरब डालर का व्यापार है. जो भारत के कुल विदेशी व्यापार का 19 फ़ीसदी है. तेल का सबसे ज्यादा आयात भी हम इन्हीं से करते हैं. इसके अलावा भारत के क़रीब एक करोड़ लोग अलग-अलग अरब देशों में नौकरियां करते हैं. वहीं, दूसरी तरफ इजराइल के साथ हमारा व्यापार सिर्फ पांच अरब डालर का है. इसलिए भारत फ़िलहाल इस मसले पर हर कदम फूंक कर उठा रहा है.
यही हाल दुनिया के और भी बहुत से देशों का है. कुछ खुल कर इजराइल के साथ खड़े हैं तो कुछ फ़िलिस्तीन के. हालांकि दो गुटों में बंटे दुनिया के सभी देश चाहते हैं कि मसला शांति से सुलझ जाए और जंग की नौबत ना आए. रविवार को इस्लामिक देशों के संगठन आर्गेनाइजेशन आफ इस्लामिक कोआपरेशन ने एक आपात बैठक कर इजराइल को चेतावनी दे डाली कि वो अल अक्साई मस्जिद पर क़ब्ज़ा की कोशिश करेगा तो नतीजे भयानक होंगे. ये मीटिंग सऊदी अरब ने बुलाई थी. हालांकि खुद सऊदी अरब ने अमेरिकी जेट फाइटर को अपनी ज़मीन दे रखी है. जिसका इस्तेमाल जरूरत पड़ने पर अमेरिका इजराइल की मदद के लिए कर सकता है. इतना ही नहीं आर्गेनाइजन और इस्लामिक कोआपरेशन यानी ओआईसी के कई देशों में आपस में ही तनाव है.
ईरान-सऊदी अरब में तनाव ईरान और सऊदी अरब मिडिल ईस्ट के दो ऐसे अहम देश हैं. जो इस पूरे रीजन की दशा और दिशा तय करते हैं और ये दोनों अहम देश एक दूसरे के दुश्मन भी हैं. दोनों पूरे मिडिल ईस्ट पर दबदबे के लिए पिछले कई सालों से कोशिशें कर रहे हैं. दोनों की दुश्मनी को एक अरसा बीत चुका है. इसी दुश्मनी का फायदा उठाते हैं अमेरिका, यूरोप और इज़राइल जैसे देश. इस रीजन में ईरान के साथ जहां इराक, सीरिया, लेबनन, यमन और तुर्की जैसे देश हैं. वहीं सऊदी के साथ बहरेन, यूएई और जार्डन जैसे देश हैं. मगर पिछले एक दशक में जिस तरह ईरान ने सीरिया की बशर अल असद सरकार को बचाया उससे साफ है कि रीजन में उसका दबदबा ज़्यादा है.
वहीं सऊदी अभी यमन के हौथी समर्थकों से ही नहीं पार पा रहा है. और सालों से चल रही ये लड़ाई उसके लिए थकाने वाली और मंहगी साबित हुई है. इसकी एक वजह ये है कि सुरक्षा के मामले में सऊदी के हाथ खाली हैं. उसकी तमाम सुरक्षा अमेरिका के हाथों में हैं. इसीलिए ज़्यादातर मौकों पर चाहते ना चाहते हुए सऊदी को अमेरिका के ही साथ खड़ा होना पड़ता है. इज़राइल मसले पर भी अमेरिका की वजह से सऊदी अरब खुलकर नहीं बोल पा रहा है. जानकारों का तो यहां तक मानना है कि जिस फिलिस्तीन के मसले पर ईरान और सऊदी को साथ आना चाहिए, उस पर भी दोनों अलग-अलग साइड ले सकते हैं.
सीरिया का गृहयुद्ध मिडिल ईस्ट में आर्थिक तौर पर जो देश मज़बूत हैं और जिनका राजनयिक रुतबा ठीक है. वो जंग में सीधे भले ना शामिल हों मगर प्रॉक्सी वार का हिस्सा हमेशा बने रहते हैं. सीरिया के मसले में भी यही हो रहा है. अरब के दोनों मज़बूत देश पीछे से सीरिया की जंग में शामिल हैं. ईरान जहां सरकार के समर्थन में खड़ा है वहीं सऊदी अरब असद की सरकार पलटने के लिए वहां के विद्रोहियों और आतंकी संगठनों को समर्थन दे रहा है. इसकी शुरुआत 10 साल पहले असद सरकार के खिलाफ हुए एक मामूली प्रदर्शन से हुई थी. मगर देखते देखते ये गृहयुद्ध में बदल गया. दुनिया के बड़े बड़े देश इस जंग में कूद पड़े. अमेरिका और रूस जैसे देश सीरिया की ज़मीन पर अपनी ताकत का मुज़ाहरा करने लगे.
हालत ये हुई है कि 10 साल पहले सीरिया में फैली अशांति अभी तक जारी है. अब तक 3 लाख 80 हज़ार लोग मारे जा चुके हैं. इनमें सबसे ज़्यादा मौत आईएसआईएस के दौर में हुई जिसे पीछे से सऊदी अरब या कहें कि अमेरिका का समर्थन हासिल था. मगर जिस सांप को अमेरिका ने खुद पाला था. जब उसने पलटकर उसे ही कांटना शुरु कर दिया तो दुनिया को दिखाने के लिए उसे मिलिट्री ऑपरेशन चलाना पड़ा. एक आंकड़े के मुताबिक अभी भी अमेरिका और यूरोपियन देश सीरिया के करीब 10 खतरनाक संगठनों की पैसों और हथियारों से मदद कर रहे हैं.
जानी दुश्मन हैं इजराइल और ईरान दुनिया की सबसे चतुर खुफिया एजेंसी. दुनिया के सबसे ताकतवर हथियारों से लैस और दुनिया की सबसे बेखौफ सेना होने का दावा करने वाले इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतनयाहू से भी जब पूछा जाता है कि आपके देश के लिए तीन सबसे बड़े खतरे कौन हैं? तो जानते हैं वो क्या कहते है. वो कहते हैं ईरान, ईरान और ईरान. आर्थिक, राजनैयिक और सामरिक तौर पर ईरान को पंगू बनाने की अमेरिका, यूरोपियन देशों और इज़राइल की तमाम कोशिशों के बाद भी अरब में अगर कोई मुल्क खड़ा है तो वो ईरान है. वरना इराक, लीबिया और ट्यूनिशिया की मिसालें आपके सामने हैं, जिसे इन देशों ने मिलकर तबाह कर दिया.
आज भी अगर इज़राइल और अमेरिका जैसे दुनिया के सबसे शक्तिशाली देशों को मिडिल ईस्ट में कोई टक्कर दे सकता है. तो वो और कोई नहीं बल्कि ईरानी हुकूमत है. ईरान कई मौकों पर साफतौर पर कह चुका है कि जब तक वो है तब तक यरूशलम की अल-अक्सा मस्जिद को कोई हाथ भी नहीं लगा सकता. मौजूदा विवाद में भी शिया बाहुल ईरान. सुन्नी बाहुल फिलिस्तीन के साथ ही खड़ा है. खुद हमास नेता इस्माइल हनीयेह ने उनके समर्थन के लिए ईरान का शुक्रिया अदा किया है. हनीयेह का कहना है कि इज़राइल के खिलाफ लड़ाई सिर्फ हमास की नहीं बल्कि पूरे इस्लामी दुनिया की है.
इज़राइल को अपना अस्तित्व बचाने के लिए अगर सिर्फ ईरान से खतरा है तो उसकी तीन बड़ी वजह हैं. वो भी तीन तरफ से हैं. पहली वजह राजधानी तेल अवीव के पश्चिम में गाज़ा पट्टी पर मौजूद फिलिस्तीनी संगठन हमास. जिसके साथ ईरान शिया-सुन्नी का फर्क मिटाकर पूरी शिद्दत से खड़ा है. उसे ना सिर्फ पैसों से बल्कि जंग के सामान से भी लैस कर रहा है. आज हमास अगर इज़राइली सेना का मुकाबला कर पा रहा है तो उसकी बड़ी वजह ईरान है.
ईरान से इज़राइल के खौफ की दूसरी वजह है उत्तर दिशा में उसके पड़ोसी मुल्क लेबनान में मौजूद राजनीतिक संगठन हिजबुल्लाह. जिसके लीडर नसरुल्लाह के एक इशारे पर लाखों लेबनानी लोग इज़राइल पर टूटने के लिए आमादा रहते हैं. हिज़बुल्लाह अक्सर इज़ाइली सेना पर रॉकेट लॉन्चरों से हमला करता रहता है. इसे भी ईरान का समर्थन हासिल है और इसके लीडर नसरुल्लाह ईरानी सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह खामनेई को अपना लीडर मानते हैं.
इज़राइल के खौफ की तीसरी वजह है पूरब में मौजूद सीरिया. जहां के सरहदी इलाकों में ईरानी मिलिशिया की मौजूदगी है और जो हमेशा इज़राइल के लिए खतरा बनी रहती हैं. इज़राइल अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद सीरिया में ईरान की मौजूदगी को खत्म नहीं कर पा रहा है. मिडिल ईस्ट में अमेरिकी दबाव के बाद भी इज़राइल इस कोशिश में नाकाम रहा है.
ईरान की इस ताकत के पीछे उसकी अपनी कोशिशें तो हैं ही. साथ ही चीन और रूस जैसे देशों की दोस्ती ने भी उसे कई मौकों पर मदद की है. रूस और चीन की बात करें तो चीन खासकर मिडिल ईस्ट में अपना दबदबा बढ़ाने की कोशिश कर रहा है. पिछले कुछ सालों में उसने कई अरब देशों के साथ बिलियन डॉलर डील्स साइन की हैं. ईरान के साथ उसने 400 बिलियन डॉलर के समझौते किए हैं. मगर चीन अरब में ये सब कर क्यों रहा है, उसकी मंशा क्या है?
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ही चीन मिडिल ईस्ट में एक्टिव हो गया था. मगर उस दौर में तेल और गैस की खोज होने के बाद अमेरिका यहां कूद पड़ा और तब से ही इस पूरे रीजन में अशांति का दौर शुरु होता है. जिन देशों ने अमेरिका की मनमानी को माना वो उसके दोस्त बन गए और जिन्होंने उसे नकारा दिया वहां गृहयुद्ध या किसी ना किसी और बहाने से अमेरिका ने या तो हमला कर दिया या वहां की सरकारों को सत्ता से बेदखल करवा दिया. आज भी मिडिल ईस्ट में अशांति की जो सबसे बड़ी वजह है, वो तेल ही है. जानकार मानते हैं कि एक बार जैसे जैसे इन देशों में तेल खत्म होना शुरु होगा यहां फिर से शांति की बहाली होना शुरु हो जाएगी.