सौरभ वीपी वर्मा
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना के तहत गांव के लोगों को उनके ही पड़ोस में 100 दिन का रोजगार उपलब्ध कराने के लिए सरकार द्वारा योजना पारित किया गया है ताकि गांव से पलायन करने वाले लोगों को गांव में हो रोजगार की सुविधा मिल सके लेकिन कमीशन खोरी और बंदरबांट की प्रथा ने मनरेगा योजना की धज्जियां उड़ा दी है ।
मनरेगा योजना के लिए सरकार द्वारा जो बजट पेश किया जाता है देखने को मिल रहा है कि उसमें से 70 फीसदी से ज्यादा पैसा मशीनों से काम करवाने में खर्च हो जा रहा है जबकि यह पैसा इस उद्देश्य से दिया जाता ताकि ग्रामीण स्तर के श्रमिक एवं मजदूर वर्ग के लोगों को गांव में ही रोजगार मिले एवं ग्राम पंचायत में कच्चे कार्यों और जल ,जंगल आदि का संरक्षण हो सके लेकिन अधिकांश ग्राम पंचायतों में देखने को मिल रहा है की मनरेगा की जो वास्तविक नीति है उसे दरकिनार करके मनमर्जी तरीके से पैसे को खर्च कर आ रहा है एक तरफ लोगों को रोजगार मिलने में भी समस्या हो रही है वहीं दूसरी तरफ सरकार जो ग्रामीण स्तर पर धरोहरों को बचाना चाहती है उसमें भी पूरी तरह से फेल है ।
मनरेगा योजना की समीक्षा करने की जरूरत
अगर मनरेगा योजना की बात किया जाए तो लगता है कि अब सरकार को भी इस पर समीक्षा बैठक करने की आवश्यकता है क्योंकि जब मनरेगा मजदूरी ₹202 रुपया दिया जा रहा है तब मजदूरों को जीवन यापन करने के लिए यह पैसा बिल्कुल कम है इसलिए मजदूरों का मनरेगा से मोहभंग हो रहा है जिसका परिणाम है कि ग्राम पंचायतों को कार्य करने के लिए मनरेगा योजना के तहत या तो मशीनों का इस्तेमाल करना पड़ रहा है या फिर ठेका प्रथा से मनरेगा योजना के कार्यों को पूरा करवाया जा रहा है ।
ग्राम पंचायत में जेसीबी मशीन से मनरेगा योजना के तहत तालाब खुदाई का कार्य ।