ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति भयावह ,डॉक्टरों की भारी कमी - तहक़ीकात समाचार

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गुरुवार, 16 मार्च 2023

ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति भयावह ,डॉक्टरों की भारी कमी

समूचा भारत स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली की मार झेल रहा है। यही वजह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में आम जन या तो झोलाछाप डाक्टरों से इलाज कराने को विवश हैं या फिर झाड़फूंक के जरिए अपनी बीमारियों से निजात पाने का प्रयास करते हैं। सरकारी डाक्टरों की ग्रामीण क्षेत्रों में तैनाती होने के बावजूद वे गांवों में नहीं जाते, शहरों में अपना चिकित्सा केंद्र शुरू कर देते हैं।
 इसकी बानगी ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी 2021-22 रिपोर्ट पेश करती है।

इस रिपोर्ट के मुताबिक देश के ग्रामीण क्षेत्रों में सर्जन डाक्टरों की लगभग तिरासी प्रतिशत कमी है। बालरोग चिकित्सकों की 81.6 फीसद और फिजिशियन की 79.1 प्रतिशत कमी है। यही हाल प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञों की है। ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी अमूमन 72.2 प्रतिशत की कमी है। इतना ही नहीं, वहां प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) की हालत भी ठीक नहीं। 

जनवरी 2023 में उच्चतम न्यायालय ने अपने एक फैसले में कहा कि  कि सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच बढ़ाने को बाध्य है। ग्रामीण आबादी की देखभाल के लिए योग्य डाक्टरों की नियुक्ति की जानी चाहिए। न्यायमूर्ति बीआर गवई और बी वी नागरत्ना की पीठ ने कहा कि स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करने में ग्रामीण और शहरी आबादी के बीच भेदभाव नहीं होना चाहिए। 

भारत के ग्रामीण क्षेत्र स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में काफी पीछे क्यों हैं? इस पर बहस की जरूरत है, न कि पांच खरब डालर की अर्थव्यवस्था का ख्वाब दिखाकर ग्रामीण और दूरदराज में रहने वाली जनता के जीवन जीने का अधिकार छीन लेने की!

एक आंकड़े के अनुसार देश में गरीब परिवारों का जीवनकाल, बीस प्रतिशत समृद्ध परिवारों के मुकाबले औसतन सात साल तक छोटा होता है। अब इसे न्याय की तराजू पर रखकर तौलिए, फिर सहज ही अंदाजा लगेगा कि लोकतंत्र में लोगों की कीमत क्या है? कहीं लोकतंत्र और संवैधानिक देश भी अर्थतंत्र की चौखट पर घुटने टेकने को मजबूर तो नहीं?

 सवाल यह भी है कि रिपोर्ट के अनुसार इस देश में गरीब की प्रतिदिन आय मात्र सत्ताईस रुपए है। ऐसे में  व्यक्ति खाएगा क्या और कोई बीमार पड़ा तो इलाज कराएगा कैसे...??

 ग्रामीण क्षेत्रों में छब्बीस हजार की आबादी पर एक चिकित्सक है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि हर एक हजार लोगों पर एक डाक्टर अवश्य होना चाहिए। अब गांव का गरीब व्यक्ति इलाज के लिए पैसे जोड़े या बच्चों की शिक्षा के लिए? यह उसके लिए बड़ा सवाल होता है।

स्वास्थ्य और शिक्षा लोकतांत्रिक देश में मुफ्त या सस्ती और सुलभ होनी चाहिए, लेकिन हमारे देश में हालत इसके ठीक उलट है। शिक्षा और स्वास्थ्य देश में कमाई का जरिया बन चुका है। 

सरकार की ‘आयुष्मान भारत’ योजना जिसका उद्देश्य पचास करोड़ से अधिक लोगों को स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान करना बताया गया वह अपर्याप्त वित्तपोषण, स्वास्थ्य कर्मियों की कमी और अपर्याप्त आधारभूत संरचना की वजह से हांफती हुई दिखती है। 

 देश में आजादी के बाद से ही भ्रष्टाचार का रोग बढ़ता चला गया है, जिसका असर स्वास्थ्य सेवाओं पर साफ देखा जा सकता है। ऐसे में आने वाले दिनों में कहीं सरकारें स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी सभी को आत्मनिर्भर होने को न कह दें, डर अब इस बात का भी सता रहा है।

 संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत हमें जीवन जीने की स्वतन्त्रता है। किन्तु जाति, धर्म की राजनीति में फंसाकर राजनीतिक दल सिर्फ अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं। गाँव, गरीब और ग्रामीणों की सुध लेने वाला कोई नहीं ।

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